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२७. अद्वैत हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो! तेरे-मेरे का भेद अपगत हो गया, स्व पर का भेद प्रगट हो गया भेद अभेद बन गया द्वैत सब खो गया अद्वैत का साम्राज्य छाया हृदय का फिर राज्य आया अब सूक्ष्म शक्तियाँ बोल रही हैं शान्ति ही शान्ति चतुर्दिक डोल रही है। अनन्त का साम्राज्य छा गया शान्ति का साम्राज्य आ गया मेरे हृदय में आनन्द समा गया तेरे रूप में-मैं विला गया प्रभु तू और मैं एक हैं विद्युत छटा की रेख हैं तेरे ज्ञान की धारा बही सुख-सम्पन्न हो गयी मही मुझे छोड़कर जाना नहीं भव-भवान्तर में फिर आना नहीं।। हे मेरे आत्मदेव!