Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 24
________________ ३. गुरुवन्दना हे मेरे प्रभो, हे मेरे विभो! अनन्त की शक्तियों के स्पर्श से धरती की अनन्त चेतना मुखरित हो उठी है - झंकृत हो उठी है। धरती के कण-कण में अनन्त की यह ध्वनि अवनि और अम्बर को आत्म-चेतना के एक ही धागे में पिरोकर एकमेक कर देती है। क्षितिज के उस पार कल्पना का सरज अपने अनन्त ज्ञान रूपी किरणों से इस जगत पर अपना उल्लास उतार रहा है, जिससे मही के प्रबुद्ध प्राणी आत्म चेतना की दिव्य शक्तियों से दैदीप्यमान हो उनमें से कुछेक आत्माएं उस अजर-अमर विश्वात्मा से तादात्म्य स्थापित कर स्वयं को अनन्त आनन्द में लीन कर देती है - हे भगवन् मुझे उन आत्मलीन महात्माओं के श्रीचरणों की चाह है, जो तेरे उन्मुक्त आंगन में मुझे प्रवेश दिला सके.. हे मेरे प्रभो, हे मेरे विभो! 23

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