Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 18
________________ सम्मति आज गद्य कविता काव्य-व्यवस्था में स्वीकृत हो चुकी है। यद्यपि छन्द, लय, तुक जैसे तमाम पारम्परिक उपादानों को छोड़ बिल्कुल निष्कवच होकर गद्य जैसे प्रभाहीन माध्यम से कविता लिखने का जोखिम कवियों ने उठाया । अब कविता छन्दों के मंच से उतर कर विस्तृत मैदानों की ओर बढ़ रही है । गद्य - कविता के वाक्य बिल्कुल गद्य जैसे होते हैं। पर गद्य-कविता किसी प्रकार की रियायत या छूट नहीं देती, बल्कि कवि को अधिक सजग और एकाग्र रहना पड़ता है। क्योंकि अब उसे किसी बाहरी सहारे या हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं रहती । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने १९३३ में गद्य-काव्य पर एक लेख लिखा, इससे पहले वे 'लिपिका' और 'शेषेर कविता' जैसी कविताएँ लिख चुके थे। उन्होंने उम्मीद की कि गद्य गीतों की जो अभी उपेक्षा हो रही है एक दिन ऐसा आएगा जब नये के स्वागत का पथ-प्रशस्त होगा। यह परम्परा आज कविता की पहचान बन गई है और श्री जतनराजजी मेहता का यह गद्य-गीत संग्रह इसी परम्परा का एक सशक्त प्रमाण है। साधना जन्य आवेश के क्षणों में चिरन्तन साहित्य की सृष्टि होती है। मुझे यों लगता है कि ये गीत उन क्षणों में रचे गए हैं, जब गीतकार की देह, मन, बुद्धि एवं अहंकार का तिरोहण हो चुका है। शेष रही है केवल आत्मा... और आत्मा से जो ध्वनि निकलती है उसकी भाषा सामान्य भाषा से भिन्न समाधि भाषा होती है... और समाधि भाषा में जो कुछ निकलता, वह होता है अन्तर्नाद, वह होता है अनहद नाद ! इन गीतों को पढ़कर कविवर जतनराजजी मेहता के जीवन की इसी स्थिति का आभास होता है। इन गद्य-गीतों को, इनमें निहित विचार दर्शन एवं चिन्तन को अनुभूति में परिणित करते हुए संवेदनाओं से अभिसिंचित किया है। इसके लिए कविवर बधाई के पात्र हैं। - जबरनाथ पुरोहित 17

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