Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 11
________________ साहित्यिक काल विभाजन के अनुसार हिन्दी के आधुनिक काल में जिसे गद्यकाल भी कहा जाता है, गद्यगीतात्मक विधा का विशेष विकास हुआ क्योंकि आज के अति व्यस्त लोक जीवन में व्यक्ति विशाल ग्रन्थों एवं काव्यों को पढ़ने का समय या सके, उनसे रसास्वादन कर सके यह कम संभव है। अल्प समय में साहित्यिक रस का आनन्द ले सके इस हेतु अन्यतम शब्दावली में विरचित रचनाएँ ही लोकव्यावहारिक एवं उपादेय होती हैं। 'अन्तर की ओर' संज्ञक प्रस्तुत नघनीतात्मक कृति के रचनाकार श्री जतवराजजी मेहता एक ऐसे व्यक्ति है जिनमें धार्मिक संस्कार, दार्शनिक चिन्तन तथा समत्वमूलक मानवीय आदर्शों में अडिन आस्था के साथ-साथ व्यावहारिक कौशल भी है क्योंकि उनका जन्म एक व्यापारिक कुल में हुआ है जहाँ व्यावहारिक उपादेयता जीवन में क्षण-क्षण परिव्याप्त रहती है। यही कारण है कि उन्होंने उस विधा में अपने प्रातिम कौशल को अभिव्यक्ति प्रदान करने का सफल प्रयास किया है। श्री मेहताजी यद्यपि एक गृहस्थ हैं किन्तु शैशव से ही उनमें आध्यात्म एवं योग के प्रति अभिरुचि रही है। यद्यपि वे वंश परंपरानुसार आहेत समुदायानुवर्ति हैं किन्तु अर्हत् के महात् आदर्शो का अनुसरण करते हुए उन्हें अन्यत्र जहाँ कहीं भी जिस किसी भी परंपरा में सत् का वैशिष्ट्य दिखा उधर से उसे आकलित करने में सदा समुद्यत रहे। उसी कारण उनकी चिन्तन धारा में अद्वैत एवं द्वैत का ऐसा सामंजस्य है, जो जरा भी विसंगत नहीं लगता उन्होंने आर्हत् दर्शन सम्मत अनेकान्त विचारधारा का व्यापक अर्थ आत्मसात् करते हुए अपने भाव जगत् में जो उत्तमोत्तम तथ्य संचीर्ण किए, उन्हीं का यह प्रभाव है, उनकी दृष्टि में कोई पराया नहीं है । उनका 'स्व' उतना व्यापक है कि उसमें समस्त प्राणिजगत् का समावेश हो जाता है। उन नद्यनीतों में उन्होंने अपने चिरन्तन योगाभ्यास चिन्तन, मनन एवं निदिध्यासनप्रसूत भावों को काव्यात्मक परिवेश में प्रस्तुत कर एक ऐसी काव्यसृष्टि की है, जो केवल कुछ देर के लिए मनोरंजन मात्र न होकर पाठकों को शांति के सरोवर में निमग्न होने का अवसर प्रदान करती है। भाव वैद्य के साथ-साथ शब्दों के सरल मृदुल प्रयोग करने में श्री मेहता जी को स्वभावतः नैपुण्य प्राप्त है, वह हर किसी में सुलभ नहीं होता। वे जब भी अन्तरतम में अपने आपको सन्निविष्ट कर चिन्तनमुद्रा में होते हैं तब शब्दावली के रूप में उनका अनुभूतिपुन्ज निःसृत होता है, वही काव्य का रूप ले लेता है। 10

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