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पुशेवाक्
जिस भूमि पर रणबांकुरों ने जन्म लेकर इसकी रक्षा की है और अपने खून से इसका सिंचन किया है। आनन्दधन जैसे योगीराज ने जहाँ निवास कर अपनी उच्च भावना "ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो और न चाहूंरे कंत। रीझ्यो साहिब संग न परिहरे, भांगे सादि अनन्त", राम और रहीम के स्वरूप को एक मानते हुए अपनी अन्तर भावना को चिन्हित किया है और जहाँ इस धरती में उत्पन्न भक्तिमती मीराँ ने “मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई” उदात्त भावना को प्रकट करते हुए समस्त धरा को अनुगुंजित किया है। उस पवित्र एवं पावन भूमि को जिसे मेड़ता कहते हैं। संस्कृत में इसे ही मेदिनीतट कहा गया है। उसी भूमि के प्रसून जतनराजजी ने अपने नाम को सार्थक करते हुए जतन, यतन, यत्न, विवेकपूर्वक अपनी वागधारा से स्वकीय भावना को प्रदर्शित किया है।
भूमि का प्रभाव, पारिवारिक और धर्म संस्कारों का प्रभाव इनकी कृति में सर्वत्र लक्षित होता है। कवि ने करुणा भक्ति व सरसता से सिक्त होकर सर्वत्र अपनी कृति में हे प्रभो, हे विभो, अनन्त, और आनन्द शब्दों का ही प्रयोग किया है। जो सम्पूर्ण गीतों में उजागर होता है। अर्थात् लेखक किसी परम्परा विशेष से आबद्ध न होकर सर्वत्र चित्त को ही प्रधानता देता हुआ दृष्टिगोचर होता है। वह उस आनन्दधन से प्रार्थना करता हुआ कहता है :
मेरे आनन्दधन विभो! अन्दर छिपी अनन्त शक्ति को प्रकट करोतप से, तेज से, ओज से, प्रेम से, आनन्द से, प्रकाश से अनन्त ज्योति से, अन्तर घट वरो
(गीत नं.१६) उस अनन्त की आराधना में कवि पाशविक वृत्तियों का दमन भी आवश्यक मानता है। वह लिखता है :
अनन्त की आराधना में युग-युगों से पृथ्वीपुत्र रत हैं - समय-समय पर काल भैरवी बजती है चित्त रूपी रण क्षेत्र में कर्म रूपी युद्ध छिड़ता है पाशविक वृत्तियों का नाश होकर सात्त्विक वृत्तियों की विजय होती है।
मानव की शाश्वत विजय
(गीत नं. १७)