Book Title: Antar Ki Aur
Author(s): Jatanraj Mehta
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 8
________________ भूमिका श्री जतनराजजी मेहता द्वारा रचित 'अन्तर की ओर' नामक गद्य गीत संग्रह मुझे अचानक प्राप्त हुआ। इस संबंध में श्री जतनराजजी मेहता से फोन पर बात भी हुई। अपनी अस्वस्थता के कारण प्रारम्भ में मैं इसे पढ़ नहीं पाया, वह मेरा दुर्भाग्य था लेकिन जब मैंने इसे धीरे-धीरे पढ़ना शुरू किया तो मुझे लगने लगा कि मैं एक अतीन्द्रिय संसार में संचरण कर रहा हूँ। यद्यपि यह हिन्दी भाषा है जो जनराजजी मेहता जैसे अतीन्द्रिय सुख में खोये हुए व्यक्ति द्वारा ही लिखी जा सकती है। नद्य गीत संग्रहों की हिन्दी परम्परा बीसवीं शताब्दी की है। नेमीचन्द जैन, रायकृष्ण दास, दिनेश नन्दिनी डालमिया, जनार्दनराय नागर, अम्बालाल जोशी ने इस परम्परा में सृजन किया है। इन सभी में अतीन्द्रिय सघनता स्वर अपना-अपना वैशिष्ट्य लिए हुए है। श्री जतनराजजी मेहता के कृतित्त्व में उन वद्य नीतों की समरसता का स्पष्ट निदर्शन परिलक्षित होता है। विराट के दर्शन हे मेरे प्रभु, हे मेरे विक्षु. पेड़ की ऊँची टहनी पर चढ़ कर अन्तरिक्ष की ओर निहार रहा था कि विराट्र के दर्शन हो गये अन्तहीन श्री व सौन्दर्य - मेरे हृदय में समा गये । - - अनन्त की सीमा, अनन्त में विलीन होती दिखाई दी - अनन्त के कण-कण में निहित - अनन्त सत्ता के दर्शन हुए सृष्टि रूप अन्तरिक्ष में विराट के दर्शन करते हुए अन्तर्हदय के अन्तरिक्ष में - प्रभु के दर्शन हुए मैं मुग्ध हो गया श्री शोभा व सौन्दर्य में खो गया विराट् की विराटता में समा गया। श्री जतनराजजी मेहता मीरा की जन्म भूमि मेड़ता के निवासी हैं। यद्यपि वे मीरां बाई के लयात्मक गीतों की अवस्था में नहीं पहुँचे, लेकिन जिस तरह मीरां का हृदय अपने आराध्य के प्रिय के 7

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