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भूति जब भावपरक होती है तो उसको प्रकट करना घासान नहीं है। किन्तु बनारसीदास ने सहज में ही प्रकट कर दी है। इसका कारण है उनका सूक्ष्मावलोकन उन्हें बाह्य संसार पोर मानव की अन्तःप्रकृति दोनों ही का सूक्ष्म ज्ञान था। इसी कारण वे भावानुकूल दृष्टान्तों को चुनने और उन्हें प्रस्तुत करने में समर्थ हो सके । एक उदाहरण देखिए
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जैसे निशिवासर कमल रहे
पंकहि मे, पंकज कहा न वाके दिन एक है। जैसे मंत्रवादी विषधर सों महावं मात
मंत्र की सकति वाके बिना विप डंक है ॥ जैसे जीभ गहै चिकनाई रहे रूखे अंग,
पानी में कनक जैसे कार्ड सों घटक है । तसे ज्ञानवंत नाना भाँति करतूति ठाने,
किरिया को भिन्न मार्न याते निकलंक है।
दृष्टान्तों के अतिरिक्त उत्प्रेक्षा, उपमा और रूपको की छटा भी अवलोकनीय है। रूपकों मे साग और निरग दोनों ही हैं। धनुप्रासों मे सहज सौन्दर्य है। बनारसीदास को प्रलंकारों के लिए प्रयास नहीं करना पड़ा। वे स्वतः ही माये है। उनको स्वाभाविकता ने सपताको अभिवृद्ध किया है। बनारसीदास एक भक्त कवि थे। उनके काव्य में भक्तिरस ही प्रमुख है। उनकी भक्ति अलंकारों की दासता न कर सको अपितु अलंकार ही
[पृष्ठ ३ प्रसिद्ध है कि जब महमूद गजनवी इधर धाया तो उगने इस मन्दिर को तोड़ने की सोची, पर रात मे ही भयंकर रूप से बीमार पड़ गया । फिर उसने वहा अपनी श्रद्धा प्रकट करने के लिए ५ वृजियां बनवा दी।
१४वीं शताब्दी मे भट्टारक ज्ञानसागर ने लिखा है "मालव] देश मकार नयर ममसी सुप्रसिद्ध महिमा मैरु समान निर्धन हू घन दोषह ||" यहां पर न केवल जैन समाज बरन् ग्रास-पास के
भक्ति के चरणों पर सदैव प्रपित होते रहे। वे रसस्कूल के विद्यार्थी ये शरीर की विनश्वरता दिखाने के लिए उत्प्रेक्षा का सौन्दर्य देखिए-
चारे से धका के लगे ऐसे फट जायमानो
कागद की पुरी किध चादर है चैन की ।।
छन्दों पर तो बनारसीदास का एकाधिपत्य था । उन्होंने 'नाटक समयसार' में सर्वया, कवित्त, चौपाई, दोहा, छप्पय और डिल्ल का प्रयोग किया है। इनमें भी 'सवैया इकतीसा ' का सबसे अधिक और सुन्दर प्रयोग है । सवैया' तो वैसे भी एक रोचक छन्द है, किन्तु बनारसीदास के हाथों में उसकी रोचकता भौर भी बढ़ गई है।
कुल कहने का तात्पर्य यह है कि बनारसीदास ने जंग माध्यात्मिक विचारों का हृदय के साथ तादात्म्य किया, अर्थात् उन्होंने जैन मन्त्रों को पढ़ा और समझा ही नही, अपितु देखा भी । इसी कारण मन्त्रदृष्टाम्रो की भांति वे उन्हे चित्रवत् प्रकट करने में समर्थ हो सके। ऐसा करने मे उनकी भाषा सम्बन्धी शक्ति भी सहायक बनी । वे शब्दों के उचित प्रयोग, वाक्यों के कोमल निर्माण मौर अलंकारों के स्वाभाविक प्रयोग में निपुण थे उनकी भाषा भावो की धनुवर्तिनी रही वही ही कारण था कि वह निर्गुनिए सतो की भाँति घटपटी न बन सकी। 000 अध्यक्ष हिन्दी विभाग दि० जैन कालेज, बड़ौत (मेरठ)
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का दोषास ]
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जनेतर लोग भी आकर मनौतियां मानते है यहा पर सर्व धर्मों के लोग एकत्रित होकर धर्म आराधना करते है।
समाज कल्याण के लिए गरीब छात्रों के लिए एक पाठशाला, गुरुकुल व प्रत्रछत्र भो है । पुस्तकालय से नि.शुल्क पुस्तके दी जाती है। इस तीर्थ पर निश्चय ही धार्मिक सहिष्णुता के दर्शन होते है। मालवा मे जैनो का यह एक प्रमुख तीर्थ है। ODO प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन (म०प्र०)