Book Title: Anand Pravachan Part 08
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 18
________________ ४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ स्वामी रामतीर्थ तुलसीदासजी के कुल में पैदा हुए थे। रामतीर्थ फारसी भाषा के विद्वान थे। किसी ने उनसे कहा-आप गोस्वामी तुलसीदास जी के कुल में पैदा हुए हैं, फिर भी आपको संस्कृत-भाषा नहीं आती, यह कैसा ?" रामतीर्थ के हृदय में यह वाक्य एकदम असर कर गया। उन्हें अपने कुल-गौरव की स्मृति प्रबल हो उठी। इसीसे प्रेरित होकर वे संस्कृत का अध्ययन करने लगे। कुल की स्मृति में कितनी प्रेरणाशक्ति भरी पड़ी है। इसका प्रत्यक्षीकरण तो हमें तब मालूम होता है जब ये माताएँ-बहनें भक्ति, व्रत, तप, उपवास, जप आदि अनुष्ठान कुल परम्परा से करती हैं। ये अपने बालकों में भी कुल के प्रत्येक सुसंस्कार का सिंचन करती रहती हैं। संस्कार सिंचन से नई पीढ़ी पवित्र और तेजस्वी होती है । वे जब कुलधर्म का स्मरण कराती हैं तो कुल के पवित्र आचार-विचार से भटकता हुआ मानव पुनः अपने कुलाचार में स्थिर हो जाता है। कुल का और कुलधर्म का स्मरण कराने का सबसे ज्वलन्त उदाहरण राजीमती सती और मुनि रथनेमि का संवाद है। जिस समय सती राजीमती तीर्थंकर अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ साध्वी मंडली सहित रैवतक पर्वत पर जा रही थी, उस समय रास्ते में बहुत जोर से आँधी और वर्षा आ गई। साध्वियाँ तितर-बितर हो गईं । सती राजीमती अकेली रह गईं थीं। उनके कपड़े भीगकर लथपथ हो गए थे। सहसा उन्हें एक गुफा नजर आयी। उन्होंने सोचा- "इसमें थोड़ी देर विश्राम लेकर कपड़े सुखाना ठीक रहेगा।" वे अन्दर घुसी। कपड़े उतारे और एक ओर सुखाने लगीं । उस गुफा में मुनिरथनेमि ध्यानस्थ थे। राजीमती को अंग पर से वस्त्र उतारते देख उसके अंगोपांगों का अवलोकन करने से रथनेमि का चित्त काम-विह्वल हो उठा। वे सहसा अपनी कुल मर्यादा भूलकर राजीमती से प्रार्थना करने लगे शुभे ! आओ, हम काम सुख का अनुभव करें। इस चढ़ते हुए यौवन को यों ही क्यों असफल बना रही हो? बस, एक बार विषयभोग का आनन्द लूट लें, बाद में पुनः संयम लेकर मोक्ष पथ पर चल लेंगे।" रथनेमि का वचन सुनते ही राजीमती चौंकी और अंगसंकोच करके बैठ गईं। वह समझ गई कि रथनेमि पर काम का मद सवार है। उसके काममद को उतारने के लिए सती राजीमती ने कुल का स्मरण कराते हुए रथनेमि से कहा पक्खंदे जलियं जोई धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंति वंतयं भोत्तुं कुलेजाया अगंधणे ॥ धिरत्थु तेऽजसोकामी जो तं जीवियकारणा । वंतं इच्छसि आवेळ सेयं ते मरणं भवे ।। अहं च भोयरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर। "धधकती हुई असह्य ज्वालाओं से युक्त अग्नि के कुण्ड में डाल देने पर भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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