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अमरसेनचरिउ आलिंगन कराया जाता है। राँगा पिघला कर पिलाया जाता है, उन्हीं का मांस उन्हें ही खिलाया जाता है, पत्थर पर वस्त्र के समान पछाड़ा जाता है, पारे के समान देह के खंड-खंड कर दिये जाते हैं। वह शरीर पुनः मिलकर पहले जैसा हो जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व और मोह में पड़कर यह जोव चारों गतियों में भटकता है और दुःख सहता है (१।१५।३-१७)।
सांसारिक स्थिति : कवि ने मनुष्यों के जीवन, यौवन और धन को अंजलि के जल की भाँति क्षीण स्वभावो कहा है। संसार में एक हँसते हुए और एक राते हुए दिखाई देता है। मित्रता, प्रभुत्व और विषय सब क्षणिक हैं। कल का कार्य आज हो कर लेना श्रेष्ठ है क्योंकि कार्य के लिए कल का समय प्राप्त होगा इसका निश्चय नहीं है ( १।१६।१-४) । __ कुटुम्ब : कुटुम्ब एक बन्दीगृह है। गृहिणो को बाहें साँकल हैं, पुत्रों का स्नेह बेड़ी है, माता-पिता, बन्धु और मित्र हथकड़ियाँ हैं । शक्ति पाकर भो मनुष्य इन बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता (१।१७।२-४)। वह कुटुम्ब रूपी जाल में ही फंसा रहता है। कुटुम्ब के लिए कोई भी पाप कर डालता है और अकेला दुःख भोगता है । __ यथार्थता यह है कि संसार में कोई किसी का नहीं है। एक-दो दिन रोकर सभी दुःख मनाते हैं इसके पश्चात् सभी खाने-पीने लगते हैं और सब दुःख भूल जाते हैं ( १११६५-६, १९-२१)।
चेतन और शरीर : कवि ने कुटुम्ब में परदेशी बनकर निलिप्त भाव से रहना उचित माना है। वे देह को धर्म का साधन अवश्य मानते हैं किन्तु उससे स्नेह करने के वे विरोधी हैं। उन्होंने देह को पुद्गल संज्ञा दो है । उनको मान्यता है कि पुद्गल अपना नहीं है किराये का है । धर्म में बाधा स्वरूप होने पर वह भो त्याज्य है। चेतन इसे छोड़ कर चला जाता है। जाते समय बलपूर्वक कोई भी उसे रोक नहीं पाता (१।१६।८, १३-१६)।
श्रावक-धर्म : श्रावक-धर्म का मूलाधार सम्यक्त्व है। यह पच्चोस दोषों से रहित और आठ अंग तथा आठ गुण सहित होता है ( १।१७ ) । यह अहंन्त देव, निग्रंथ गुरु और अर्हन्त-वाणो पर श्रद्धान से होता है, कुगुरु-कुदेव और कुशास्त्रों को मानने से सम्यक्त्व नहीं होता (१।१८।१-२) ।
सम्यक्त्व की महिमा का वर्णन करते हुए कवि ने लिखा है कि चारित्र
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