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पंचम परिच्छेद
१९७ [५-८] [ परस्त्री-त्याग एवं लोभ-परिहार तथा गुणव्रत सम्बन्धी धर्मोपदेश ]
परस्त्री-रमण से दुर्गति होती है और परस्त्री-रमण त्याग गंगा जल के समान सुखकर होता है ।।१।। हे राजन् ! जो परस्त्री के सहवास में आनन्द मानते हैं ( उन्हें) तिनके के समान मानें ।।२।। परस्त्री-सहवास त्यागो, सदाचार का पालन करके सज्जन नियम से शुभगति में जाते हैं ।।३।। मन से लोभ का अतिक्रमण न करें। लोभ से धर्माचरण नहीं दें ॥४॥ लोभ में आसक्त पुरुष किसी को नहीं मानते । गमनागमन का कुछ भी विचार नहीं करते ॥५॥ सैकड़ों दुःखवाले नरक तथा अन्य अनेक अनर्थकारी झगड़ों का कारण जानकर तृष्णा-लोभ का परित्याग करके नियम ग्रहण करे और फैलते हए मन का संकोच करके धारण करे ॥६-७॥ दिशाओं और विदिशाओं में गान करने की संख्या मर्यादा-निश्चय करे और वर्षा ऋतु में गमनागमन छोड़े ॥८॥ कठोर स्वभावी, अनार्य और भोल जहाँ निवास करते हैं, जहाँ जैनधर्म नहीं है, जहाँ साधर्मी नहीं है और भाई भी नहीं है वहाँ निवास न करे और न शुभकर्म करे ।।९-१०।।
घत्ता--जो पाप में रत है, पापो है, दुष्ट है ऐसे लोगों और दुष्ट मनवाले तिर्यञ्चों को न पकड़े, न पालन-पोषण करे, न बोले और न देखे । सज्जन ( इनमें ) मध्यस्थ रहे ।।५-८।।
[५-९] [ शिक्षाव्रत-उपदेश एवं अमरसेन का पूर्वभव-वृत्तान्त ] सभी जीवों के मंत्रीभाव धारण करके एकचित्त से सामायिक करे ।।१।। अष्टमी और चतुर्दशी तिथियों में प्रोषधोपवास करके फैलते हुए अपने मन का संकोच करे ।।२।। श्रावक सूख का निधान-भोग और उपभोग की वस्तुओं के परिमाण का नियम करें ||३|| जो अतिथियों और मुनियों को आहार कराते हैं वे मनुष्य भोगभूमि के सुख पाते हैं ।।४॥ रात्रि का भोजन बहत पापों की खदान है। रात्रि में खाने-पीने में कुछ भी दिखाई नहीं देता ।।५।। अनछना पानी पीने से जीव बहुत रोगों से पीड़ित होता है, कीड़े पड़ जाते हैं ।।६।। इसे सागारधर्म जानो। जो इसे सस्नेह धारण करता है ( वह ) मुक्ति पाता है ।।७।। सभी ने इसे ग्रहण करके साधु की वन्दना की तथा मन में अपूर्व लाभ माना ॥८॥ इसके पश्चात् कुमार मुनि के चरणों में नमस्कार करके स्थिर होकर अमृतोपम वाणी से कहता है
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