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परिशिष्ट - १
१५. कियकम्महणि विसिवपउ लहेइ | १|१३|१६
शिव-पद (मोक्ष) पूर्वोपार्जित कर्मों के नाश होने पर ही प्राप्त
होता है ।
१६. क्रिम कम्महं पेरिउ कित्थु णउ रहेइ | ४|१|३
कहीं भी क्यों न रहो, पूर्वोपार्जित कर्म दुःख देते ही हैं । १७. किय पुण्णें संपइ होइ जाउ । १।२२।२२ अर्जित पुण्य से सम्पत्ति हो ( ही ) जाती है । १८. किंण करहि रइ-लुद्ध धुय । २।१०
निश्चय से रति का लोभी क्या नहीं करता है ? १९. कि किज्जइ णिद्धणु रूवजुत्त | ३|७|४ निर्धन-रूपवान् होकर भी क्या करे ? २०. किं किज्जइ मणुएं दव्व - विणु | ३|७|११ द्रव्य - विहीन मनुष्य क्या करे । २१. गइ पाणी पहलउ पालि वधु | १|१४|४ पानी निकल जाने के पहले पाल बाँधो । २२. गइ सप्पाहि पीढइ लीह अंधु | १/१४|४
साँप निकल जाने पर अन्धा ही लकीर पीटता है । २३. गल-संकल घरणी- वाहुदंड | १|१७|३
गृहिणी के बाहुदण्ड गले में साँकल स्वरूप हैं । २४, गुरु- मारणेण महापाउ होउ | ३|१२|१४
गुरु का वध करने से महापाप होता है । २५. जइसउ करइ सु तइसउ पावइ । ४।१२।१३ जो जैसा करता है वह वैसा ही पाता है । २६. जाणंतु सहइ जइ दुक्ख देहु | १|१७|८
शरीर ही दुःख सहता है - ऐसा जानो । २७. जिउ पडिउ कुडवावत्तिगत्ति | १।१६।२० जीव कुटुम्ब रूपी गर्त में पड़ा है । २८. जिउ उडिउ ण सक्कइ वलि वि पाय । १।१७।४ शक्ति पाकर भी जीव उड़ नहीं सकता ।
२९. जिम जिम काया अणुहवइ सुक्ख ।
तिम-तिम जाणोवउ अधिक दुक्ख || १।१७/७
शरीर ज्यों-ज्यों सुख का अनुभव करता है त्यों-त्यों अधिक दुःख
जानो ।
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