Book Title: Amarsenchariu
Author(s): Manikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 289
________________ २७६ अमरसेणचरिउ पापी ६२. नवि करतउ संकइ किमइ पापु | १|१६|६ कुछ भी करने में शंका नहीं करता है । ६३. पम्माउ करिसि तउ पडिसि सोगि । १।१९।१७ प्रमाद करोगे तो शोक में पड़ोगे । ६४. परधणु - तिणु परतिय मायतुल्लि । १।१९।१४ पराया धन तृण तुल्य और परस्त्री माता तुल्य होती है । ६५. परमप्पउ लब्भइ अपचिति । १।१८ १३ परमपद आत्मचिन्तन से प्राप्त होता है । ६६. परसंताविय दय संतावइ । ४।१२।१३ दूसरों को संताप देनेवाला संतप्त होता है । ६७. परिहरि कोहाइ कसाय चारि | १|१७|१० क्रोध आदि चारों कषाएँ त्यागो । ६८. परिहरि कूडातुल कूडमाणु | १|१९/१५ कम-ज्यादह माप-तौल को त्यागो । ६९. परंतु पंच इंदिय निवारि । १।१७ १० पाँचों इन्द्रियों के प्रसार का निवारण करो । ७०. पाच्छइ पच्छतावइ कवण काजु | १|१४|३ पीछे पश्चाताप करने से क्या लाभ ? ७१. पावेण पावइ गरुय दुहु । ११२२/२३ पाप से बहुत दुःख प्राप्त होता है । ७२. पियमायत्तमाया झमालि | १|१६/५ माता-पिता, पुत्र और सम्पत्ति सभी झगड़े की जड़ हैं । ७३. पुण्णें कण्ण होइ | २|१२|३ पुण्य से क्या नहीं होता है । ७४. पुरिसत्तणु करि अरिहंतु-राहि । १।१७/६ अर्हन्त के नार्ग में पुरुषार्थ करो । ७५. म करि धम्महं विलंबु | १|१६| ११ धर्म में विलम्ब मत करो । ७६. म करि पुग्गल सणेहु | | १|१६|१३ पुद्गल (ह) से स्नेह मत करो । ७७. मणवयणकाय परवत्थ चत्त । णित्थरहि भवं हि वेइ भक्त || १।२१।१२ मन, वचन और काय से परवस्तु ( देह ) का त्याग करके शीघ्र संसार सागर से बाहर निकलो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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