Book Title: Amarsenchariu
Author(s): Manikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 290
________________ २७७ परिशिष्ट-2 ७८. यउ जाणिवि वेस ण होति अप्पु । ४।७८ वेश्या अपनी नहीं होती-ऐसा जानो। ७९. लइ संजम अप्पउ तारि-तारि।।१६।२२ संयम लेकर अपने को तारो ( संसार-सागर से पार करो)। ८०. लहणा-देणा लगि मिलिउ-जोई । १।१६।१९ मिलन-योग लेन-देन तक का है। ८१. लोहासत्तउ कासु ण मण्णइ । ५।८।५ लोभासत्त किसे नहीं मानता है । ८२. वयरु ण होई सुंदरु। वैर सुन्दर नहीं होता। ८३. ववसायहं विणु णउ होइ लच्छि । ४।५।१२ बिना व्यवसाय के लक्ष्मी नहीं होती। ८४. विण पूण्णे जीउ ण लहइ सुह । १।२२।२३ बिना पुण्य के जीव सुख नहीं पाता है। ८५. विण दव्वें कोइ न करइ गव्वु । २।११।१४ बिना द्रव्य के कोई गर्व नहीं करता है। ८६. विणु ववशायहं गउ अत्थ होइ । ३।६।१० बिना व्यवसाय के धन नहीं होता है। ८७. विणु उज्जमु विणु उ कज्जसिद्धि । ४।१।२ उद्यम किये बिना कार्य की सिद्धि नहीं होती है। ८८. वेसा णरु गण्हइ दव्वसहिउ । ४।७।५।। वेश्या धनवान् पुरुष का ही आदर करती है। ८९. वंदिहरि कुडंवइ । १।१७।२ कुटुम्ब बन्दीगृह है। ९०. सहभुजइ णिहि । ५।५।२२ निधियों को सब मिलकर भोगो । ९१. सा रसना तुव गुण लोल लुलइ । १।१०।१० __ रसना वही ( धन्य है जो ) तीर्थंकरों के गुणों की लोलुपी है। ९२. सुक्खि अणंतर दुक्ख होइ । १।१४१५ सुख के पश्चात् दुःख होता है। ९३. सुह-कम्महं संपइ लद्ध तत्त । ४।३।९ सम्पत्ति शुभ कर्म से प्राप्त होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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