Book Title: Amarsenchariu
Author(s): Manikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 291
________________ २७८ अमर सेणचरिउ ९४. सुहु- दुहु कियक में हुति भक्त | १|१३|१४ सुख और दुःख पूर्वोपार्जित कर्मों से होते हैं । ९५. सो साहु इच्छु तुव पडि चलइ | १|१०|१० वह इच्छा अच्छी है जो तीर्थंकर के प्रति होती है । ९६. संजम कर अप्पर पाव मुक्कु । १११७१९ संयम लेकर अपने पाप त्यागो । ९७. संसार-भवण्णव पडिउ जीउ । णीसरइ सा विणु जिणधम्म कीउ || १/२०१७ संसार भँवर में फँसा हुआ जीव बिना जैनधर्म धारण किये बाहर नहीं निकलता है । ९८. संसारि नही अप्पण कोइ । १।१६ १९ संसार में अपना कोई नहीं है । ९९. संसारु अणंतउ परह चिंत। १।१८।१३ पर की चिन्ता से अनन्त संसार प्राप्त होता है । १००. संसार असारु वि मणि मुणे | २/९/२५ मन में संसार को असार जानो । १०१. हथकडगमित्त पियमायभाय । १।१७।४ मित्र, माता-पिता और भाई हथकड़ियाँ हैं । १०२. हो लोयहु थी भेउ ण दिज्जइ । ३|१३|१ स्त्रियों को भेद नहीं देना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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