Book Title: Amarsenchariu
Author(s): Manikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 287
________________ २७४ अमरसेणचरिउ ३०. जिणि धम्मि होई जीवहं संघारु । १।१८।१० जीवों के संहार से धर्म नहीं होता है। ३१. जिणधम्महं विणु न वि होइ मुक्खु । १।१९।१८ मोक्ष जैनधर्म के बिना नहीं होता है । ३२. जिणधम्महं विणु न वि सक्क-सुक्खु । १।१९।१८ इन्द्र-सूख जैनधर्म के बिना नहीं। ३३. जिणधम्में विणु किह सुगइ पत्त । ३।१०।५ सुगति किसे जैनधर्म के बिना प्राप्त हुई। ३४. जिण-वयणु-सरणु । ३।८८ जिन-वचन हो शरण हैं। ३५. जीविउ धण जुव्वणु अथिरु जाणि । १।१६।१ जीवन, धन और जवानी को अस्थिर जानो। ३६. जो करइ सुतिप्पइ सुकिय-हेउ । १।२१।९ जो धर्म-कर्म करता है उसकी अभिलाषा पूर्ण होतो है । ३७. जंकल्लि करंतउ करिसु अज्जु । १११६।४ जो कल करना है उसे आज ही करो। ३८. झडि पडियति संकल-कम्म जोगि । १।१७।५ कर्म-शृंखला ध्यान से झड़ पड़ती है। ३९. णउ धणहीणु वंधु महि जुज्जइ । ३।३।१५ पृथिवी पर भाई का धनहीन होना ठीक नहीं है । ४०. णउ होणहं घरह विविसइ सिरि । ३।२।९ हीन-दीन के घर लक्ष्मी प्रवेश नहीं करती। ४१. णउ जाइ अहलु जं कम्म किओ। ४७।१० जो कर्म किये हैं वे निष्फल नहीं होते। ४२. णउ अण्णु होइ किय सुहदुहेहिं । ५।५।१८ उपाजित सुख-दुःख अन्यथा नहीं होते। ४३. णउ चल्लई मत्थई लिहिउ देव । ५।५।१९ भाग्य का लेख अन्यथा नहीं होता। ४४. णउ पुग्गल अप्पुण होई । ५।१७।१ पुद्गल अपना नहीं होता है। ४५. तहि णउ वसइ णत्थि साधम्मिउ । ५।८।१० ( जहाँ ) साधर्मी न हों वहाँ निवास न करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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