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परिशिष्ट-१
सूक्तियाँ १. अइ लाडणु बहु दोसु मुणेप्पिणु । २।३।१०
बच्चों का अधिक लाड़ बहु दोषकारी होता है। २. अइ वलवंतई सक्कण पूज्जइ । २।५।७
महाबलवानों को इन्द्र ( भी ) पूजता है । ३. अच्छहु दुज्जण दूरि वसंतई । १।८१
दुर्जन से दूर रहना अच्छा है। ४. अथिरु संसार वक्कू । १११७९
संसार अस्थिर और वक्र है। ५. अधिकारिउ जीविउ कम्मराउ । १।१७।१ __ कर्म रूपी राजा जीव का अधिकारी है। ६. अपवाई पाउ हरेइ लहु । २।११।१८।।
निजोपदेशी पापों से शोघ्र छूट जाता है। ७. अमियं जं समयहं दिण्णु दाणु । ४।११।८
समय पर दिया गया दान अमृत तुल्य होता है। ८. अमियं सीयलु जगि सुहवयणु । ४।११।९ ___ शुभ और शीतलता देनेवाले वचन अमृत-तुल्य होते हैं। ९. अमियं साहुह परमत्थसंगु । ४।११।१०
परमार्थ के लिए साधु-संग अमृत-तुल्य होता है। १०. अमियं गुणगुट्टिहिं करइ संग । ४।११।१०।।
गणी जनों की गोष्ठियों का संग करना अमृत तुल्य है। ११. आसा-वासिणि मन पडि संसारि । १।१६।२२
संसार में आशाओं और इन्द्रिय वासनाओं में मत पड़ो। १२. इकचित्ति-सुद्ध जिणधम्म सेवि । १।१७।१४
जैनधर्म विशुद्ध एक चित्त से सेव्य है। १३. इय चिरणेहें णेहु पवट्टइ । ६।१३।१
पुरातन स्नेह में स्नेह बढ़ता ( ही ) है। १४. कह मरण-वत्थच्छुट्टइ ण जीउ । २।१।१६
जीव मरण-काल में कहीं भी नहीं छूटता है।
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