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पंचम परिच्छेद
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भेरी की आवाज से पुरजन आ जाते हैं || १३ || राजा एकत्रित हुए परिजन और पुरजनों के साथ मुनियों की वन्दना तथा पाद-भक्ति के लिए
गया || १४ ||
धत्ता - राजा ने मन, वचन और काय से मुनियों की वन्दना की और मुनि से अपने लिए हितकारी धर्म-समझाने का निवेदन किया | निवेदन सुनकर मुनि कहते हैं - हे राजन् ! सुनिए -- सम्यग्दर्शन अशुभहारी है ॥५-२०॥
५-२१ ]
[ अमरसेन- वइरसेन मुनि का देवसेन के देश में आगमन एवं देवसेन को सम्यग्दर्शन तथा जिनेन्द्र पूजा-फल-वर्णन ]
ध्रुवक - शास्त्र प्रमाणित दृढ़-सम्यग्दर्शन पच्चीस दोषों से रहित होता हैं । ऐसे सम्यग्दर्शन के होते ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र सुशोभित होतें हैं, उसके बिना ज्ञान और चारित्र नहीं होते || || वह सर्वप्रथम जिनेन्द्र ने गणधरों को कहा पश्चात् उनके द्वारा वह मुनियों को कहा गया || १ || मुनियों ने विद्वान् श्रावकों को कहा और उनके द्वारा अपनी भावना के अनुसार विवेक पूर्वक ग्रहण किया गया ||२|| हे राजन् ! पाषाणों में नागवज्रमणि जैसे सम्यग्दर्शन को पूजो ||३|| इससे जिसका रूप चला गया है वह कुरूप रूप युक्त हो जाता है, निर्धन-धनवान् बन जाता है ॥४॥ निष्क्रिय जन के तप और व्रत क्रिया बढ़ती है, मूर्ख- पण्डितों में अग्रेसर हो जाता है ||५|| पति के त्याग देने से जिस युवा कुलीन स्त्री के बिना घर की वृद्धि नष्ट हो जाती है, इससे वह कुलांगना प्राप्त हो जाती है || ६ || सम्यक्त्व के बिना सभी प्रमुख दान, पूजा और उपवास आदि नहीं शोभते ||७|| इसी कारण से जिन भव्य जनों को सम्यक्त्वपूर्वक की गयी पाप भावहारी जिन-पूजा का फल उत्पन्न हुआ है उसे सर्व प्रथम कहता हूँ || ८-९ || इस जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र की पूर्व दिशा में आर्यखण्ड में नभस्पर्शी भवनवाली कच्छावती देश की सुसीमा नगरी है, वह ऐसो प्रतोत होती है मानो सुख की सीमा स्वरूप विधाता ने उसकी रचना को हो ।।१०-११।। प्रशस्त चक्रवर्ती की भूमि से सुशोभित उस नगर का वरदत्त नाम का राजा था ||१२|| किसी एक दिन वनपाल ने हाथ में फल-फूल लाकर विनय की ||१३|| हे स्वामी ! शिवघोष नाम के तीर्थंकर की सुशोभित एवं अवाधित समवशरण- लक्ष्मी नगर के बाहर पर्वत की तलहटी में आकर
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