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पंचम परिच्छेद
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इस प्रकार सत्य और असत्य का सार जानकर वे मनि दुनिवार तप में केलि करते हैं ।।९।। वे मुनि अपनी देह को तृण के समान गिनते/मानते हैं । सूर्य की किरणें तपने पर ( ग्रीष्म में ) वे पर्वत पर, वृक्ष तले शिलातल पर, शिशिर की शीत में पर्वत पर और वर्षाकाल में वृक्षों के नीचे रहते हैं ।।१०-११।। दोष-रहित वे वन में रात्रि में बिना किसी शंका के दण्डासन मृतकासन, वज्रासन, पल्यंकासन, पद्मासन और गोदोहासन इन छह आसनों से स्थिर मन से रहते हैं ।।१२-१३।। इस प्रकार मुनि अमरसेनवइरसेन वहाँ आभ्यन्तर तप करते हैं ।।१४।।
घत्ता-बिना प्रायश्चित्त और माया-त्याग के यहाँ विशुद्ध तप नहीं होता । वह प्रधानतः दर्शन, ज्ञान, चारित्र और गुरु तथा परमेष्ठियों की विनयपूर्वक होता है ।।५-१९।।
[५-२०] [ मुनि अमरसेन-वइरसेन का आभ्यन्तर तप एवं राजा देवसेन
का उनको वन्दनार्थ आगमन-वर्णन ] [ वे दोनों मुनि ] संघ के थके हुए या बीमारी से ग्रस्त पीडित उपाध्याय और ( अन्य ) मनियों की दस प्रकार से वैयावत्ति करते हैं ।।१।। शाश्वत आगम-शास्त्रों का पापहारी निरन्तर स्वाध्याय-तप करते हैं ।।२।। देह-त्याग करके भी रत्नत्रय को भाते हैं ( कायोत्सर्ग करते हैं ) और पृथिवी पर धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान ध्याते हैं ॥३॥ इस प्रकार बारह प्रकार का तप पालते हुए पूर्वकृत कर्म-मल धोते हैं ।।४।। पृथिवी पर विहार करते हैं, तीर्थों की वन्दना करते हैं और भव्यजनों को धर्म-पथ पर लाते हैं ॥५॥ चारों अनुयोगों को हृदय में भाते हैं [ और ] लोगों को शास्त्रोक्त रीति से श्रुत समझाते हैं ।।६।। उन्होंने सभी लोगों को जैनधर्म से सम्बोधित किया। उनका मिथ्यात्व वैसे ही शान्त हो जाता है जैसे सिंह का बोध होते ही हाथी मौन हो जाते हैं ॥७॥ ( वे ) धन-धान्य और लोगों से परिपूर्ण देश के सुन्दर देवालय में आते हैं ।।८।। राजाओं से सम्मानित राजा देवसेन अपनी भार्या ( सहित ) वहाँ आया और दोनों अपने सिंहासन पर बैठे। इसी बीच वनपाल आया ॥९-१०।। ( उसने) नए फूल और फलों से भरी टोकरी राजा के आगे रखकर और अपना सिर झुकाकर ( कहा )-हे राजन् ! आपके नन्दन-वन में लोक को सुखकारी दो मुनिराज आये हैं ॥११-१२॥ (राजा) आनन्द-भेरी बजवाता है,
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