________________
चतुर्थ परिच्छेद
२२३ की देहरी पर एक भी नहीं चढ़ा पाती ॥२॥ जिस हाथ से ( फूल ) लेती हैं सर्प द्वारा डस लिया जाता है। पश्चात् दूसरी ( बहिन ) का हाथ भी उसो सर्प द्वारा डस लिया जाता है ।।३।। जिन-पूजा को भाती हुई मरी और मरकर स्वर्ग में देव की देवियाँ हुईं ।।४।। पीछे आने का यही कारण है, और हे राजन् यही ( उनके ) शारीरिक सौन्दर्य का रहस्य है ॥५॥ ऐसे वचन सुनकर पहले राजा मुनि के चरणों में प्रणाम करके पश्चात् बैठ जाता है ॥६।। शीघ्र वीतराग ( देव ) की पूजा की। पूजा में आसक्त इसके अकृत नव (नौ) निधियाँ उत्पन्न होती हैं ।।७।। जो कोई संशयरहित होकर आठ प्रकार की सामग्री से जिनेन्द्र की पूजा रचाता है/करता है, उसे क्या संभव नहीं होता। भव्य जनों को यहाँ शीघ्र पदार्थ सिद्ध होते हैं ।।८-९॥
घत्ता--हे मगध नरेश ! किसी मिथ्यादृष्टि मनुष्य को मन में ऐसी भावना कैसे ( हो सकती है)। प्रीतंकर नाम का मनुष्य शुद्ध परिणामो होकर भी परिभ्रमण कर रहा है ।।५-२३ ॥
[५-२४ ] [प्रीतंकर को पूजन-अनुमोदना-फल-प्राप्ति-वर्णन ] वह प्रीतंकर किसी दूसरे दिन पोदनपुर गया और क्षण भर में जाकर जिनालय में बैठ गया ॥१॥ पोदनपुर के राजा के द्वारा पापहारी जिननाथ की पूजा की गयी ॥२॥ उसे देखकर उसने मन में पश्चाताप किया ( कि ) मेरा सम्पूर्ण जन्म निरर्थक गया ॥३॥ मेरे द्वारा पूजा की ऐसी रचना नहीं की गयी। दूसरों के द्वारा की गयी भी कभी नहीं देखी गयी ॥४। इस प्रकार अनुमोदना-गुण से सहित वह उसी देश में असमय में मरा ।।५।। ( मरकर वह ) दिव्य तेज से युक्त यक्ष देवों का स्वामी हुआ । मुनि संघ के उपसर्ग से दावाग्नि से जलते हुए मुनि संघ की रक्षा करके वह विशुद्ध बुद्धि इस पर्याय से चयकर मुदिदोदय नाम का विजयार्ध के निवासी विद्याधरों का स्वामी विद्याधर (हुआ ) ॥६-८।। इसके पश्चात् जिनेन्द्र की पूजा के पुण्य से वैभवशाली सनत्कुमार स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ।।९।।
घत्ता-पूजा के भाव रखकर वह लंकापूरो में आकर राजा के रूप में प्रकट हुआ। वह कुछ समय पृथिवीतल को भोग कर पश्चात् शिवपुर ( गया ) । कवि माणिक्क कहते हैं कि मैं भी शिवपुर पाऊँ ।।५-२४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org