Book Title: Amarsenchariu
Author(s): Manikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 272
________________ सप्तम परिच्छेद २५९ हुआ एक सहस्रदल कमल देखा गया ||४|| उस श्वेत वर्ण के फूल को लेने के लिए उसके कहने पर उसे प्रकट होकर नाग कन्या कहती है ||५|| सर्व हितकारी इस कमल को ले जाकर तुम किसी दूसरे को भली प्रकार प्रदान करो || ६ || उससे ऐसा सुनकर उसके द्वारा वन में वह ( कमल) सेठ - वसुमित्र को दिये जाने के पश्चात् क्षण भर वृत्तान्त कहा गया ||७| वणिक पति वसुमित्र के द्वारा ( वह वृत्त ) राजा से कहा गया । पश्चात् राजा के द्वारा सुखपूर्वक मुनि का स्मरण किया गया ||८|| संयोग से राजा ग्वाले के साथ शीघ्र सहस्रकूट - जिनालय गया || ९ || जिनेन्द्र का अभिषेक और मुनि की वन्दना के पश्चात् मुनि से गुणवान्, भव्य राजा के द्वारा पूछा गया || १० || संसार में कौन सर्वोत्कृष्ट है ? ( उत्तर में ) उन मुनि के द्वारा जिननाथ निरूपित किये गये /बताये गये ||११|| तब वह ग्वाल जिनेन्द्र भगवान् के आगे स्थित होकर पृथिवी पर सिर रखकर धारावाहिक रूप से कहता है ||१२|| ( उसने कहा - हे स्वामी ! ) यह निर्मल कमल सर्वोत्कृष्ट है, मैंने दिया है, ग्रहण करो || १३ || घत्ता - इस प्रकार कहकर वह गुणवान् ग्वाला देव के ऊपर ( वह फूल ) रखकर कार्यवश चला गया । वहाँ से मरकर जिनेन्द्र की पूजाभक्ति से राजा करकण्डु हुआ ।।७-८ ॥ [ ७-९ ] [ जिन-पूजा-माहात्म्य तथा मुनि अमरसेन- वइरसेन का स्वर्गारोहण ] स्त्री-पुरुष और राजा जो कोई भी हार्दिक भावनाओं सहित जिनेन्द्र की पूजा करता है, वह देव और मनुष्य पर्याय के सुख पाता है और इसके पश्चात् शिवपुर-स्थान में सिद्ध होता है ॥१-२ | ऐसा सुनकर मनुष्यों के राजा उस देवसेन के द्वारा आनन्दपूर्वक मुनि की वन्दना की गयी ||३|| जिनेन्द्र - पूजा की विधि समझकर क्षण भर में राजा उत्साहपूर्वक अपने घर / महल गया ॥४॥ वहाँ भव्यजनों को सम्बोधनार्थ विहार करते हुए दोनों मुनिराज ( अमरसेन - वइरसेन ) आते हैं ||५|| वे भूमि-विहारी उन मुनियों भव्यजनों को सम्बोधित किया और जिननाथ का धर्म प्राप्त करने को प्रेरित किया || ६ || अति क्षीण काय वे मुनि अवधिज्ञान से ( अपनी ) आयु अल्प जानकर अपने आत्म-स्वरूप का स्वाद लेते हैं ||७|| वे दोनों भाई ( मुनि ) माया रहित होकर पृथिवी पर विहार करते हैं (और) काम मेटने वाला निरन्तर तप करते हैं || ८ || इसके पश्चात् मेरु पर्वत के समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300