Book Title: Amarsenchariu
Author(s): Manikkraj Pandit, Kasturchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 282
________________ सप्तम परिच्छेद [ ७-१५ ] [ करमचंद के तीसरे पुत्र ताल्हु का वंश परिचय तथा कवि की काव्यात्मक भावना एवं रचना-काल ] २६९ कमल की कान्ति धारण करनेवाला सुखकारी पहला ( पुत्र ) दामू और सुखकारिणी ईच्छाही ( उसकी ) पत्नी ( हुई ) ||१|| इन दोनों के महदास प्यारा पुत्र हुआ । इसके पश्चात् मनोहर वीर देवदास हुआ ||२॥ ( इसकी ) रुधारणंही मनोहर स्त्री ( और उससे ) सुखकारी घणमलु पुत्र हुआ || ३ || उसकी जगमल्लाही श्रेष्ठ पत्नी और भरण-पोषण करनेवाला वायमल्ल पुत्र हुआ || ४ || इस प्रकार रसों से भरपूर शास्त्र की रचना करानेवाले देवराज का वंश प्रकाशित किया ||५|| क्रोध - मोह, माया और मान के विदारक (इस ग्रन्थ के ) जो अक्षर हैं कोई भी उन्हें नहीं नाशे ॥६॥ विरुद्ध भी कहा गया हो तो वीर जिनेन्द्र के मुँह से निकसित श्रेष्ठ वह स्वामिनी सरस्वती प्रसन्नता पूर्वक मुझे क्षमा करे || ७-८॥ विशेष रूप से ब्रह्मचर्य आदि गुण-समूह-निधिधारी आचार्य हेमचन्द्र और पद्मनन्दि से मेरे द्वारा ( मुझ माणिक्क कवि के द्वारा ) कसौटी पर कसकर वर्ण धारण किये जाने के पश्चात् काव्य में स्वर्णाक्षरों अथवा सुन्दर लिपि में लिखकर दिया गया है ।९-१०। मात्रा और अर्थ -सौन्दर्य का क्षय किये बिना अर्थ - विरुद्ध मलिनता को काटकर मन लगाये बिना भी यह काव्यरूपी रसायन चिरकाल तक शोभित होवे ॥ ११-१२ || राजा विक्रमादित्य को हुए पन्द्रह सौ छिहत्तर वर्ष निकल जाने पर चैत मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि शनिवार के दिन कृतिका नक्षत्र के शुभ योग में (यह ) सूत्र ( अमरसेणचरिउ ) पूर्ण ( समाप्त ) हुआ ।।१३-१५।। घत्ता - ( कवि भगवान् महावीर से विनय करते हुए कहते हैं - ) हे जगत् के परमेश्वर, जिनेन्द्र भगवान्, महावीर, मुझे शीघ्र इतना ही दे दीजिए— जहाँ न क्रोध है और न मान है, जहाँ जाने पर पुनः संसार में आना नहीं पड़ता, वह शाश्वतपद (मोक्ष) मुझे दीजिए || ७- १५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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