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षष्ठम परिच्छेद
२३३ दोनों ने मन की चिन्ताओं का निरोध चाहा ॥६॥ परस्पर में बातचीत करके वे दोनों परम मित्र हो गये ।।७।। मणिशेखर के द्वारा पछा गया कि तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ? और किसके पुत्र हो ? ॥८॥ तुम्हारे ऊपर बहुत स्नेह बढ़ रहा है। यह विद्याधर उस वज्रागार रत्नशेखर से कहता है ।।९॥ विजयार्द्ध पर्वत की रम्य दक्षिणश्रेणी में परम धर्मात्मा राजा जयवर्मा हैं ॥१०॥ उनकी प्रिया विजयादेवी का मैं पुत्र हूँ। वक्रता से धनवाहन नाम से कहा जाता हूँ ।।११।।
घत्ता-राजा ( जयवर्मा ) मुझे राज्यलक्ष्मी देकर पर्वत पर गये और द्विविध तपवाले मार्ग में स्थिर हुए। पश्चात् भाग्यशाली मैंने क्षमा भाव से तलवार के द्वारा विद्याधरों को जीता और चक्रवर्ती हुआ ।।६-५॥
[६-६] [ मणिशेखर को स्वयं निर्मित-यान से मेरु जिनालय-वन्दना
इच्छा एवं यान-रचना] अपनी इच्छानुसार आकाश में विहार करता हुआ आकाशगामी यान के स्खलित हो जाने से यहाँ आ पहुँचा हूँ॥१।। तुम्हारे दिखाई देने पर प्रजा ने पूछा-वैरी है, ( तब ) मैंने सम्पूर्ण ( वृत्त ) कहकर (तुझे अपना) हितैषी बताया ॥२॥ अब आप अपना वृत्तान्त ( परिचय ) प्रकट करो, माता-पिता और नगर बताओ ॥३॥ वह मणिशेखर कहता है-इस रत्नसंचय नगरी में राजा वज्रसेन ने युद्ध में शत्रुओं पर विजय की ॥४।। मैं मणिशेखर पुत्र हुआ, वनक्रीड़ा के लिये यहाँ आया हूँ ।।५।। दोनों में पारस्परिक बहु स्नेह से अधिक मैत्री भाव बढ़ा ॥६।। ( रत्नशेखर ने कहा मित्र धनवाहन ) सुनो ! मेरे मन में रातदिन मेरु पर्वत के जिनालयों की वन्दना करने की इच्छा होती है ॥७॥ धनवाहन कहता है-शीघ्र मेरे आकाशगामो-इच्छानुसार गमनशील विमान पर चढ़ो ॥८॥ धनवाहन से ऐसा सूनकर मणिशेखर कहता है यदि सुखकारी अपना विमान हो तो उस विमान पर चढ़कर जिनालयों को वन्दूँ। पराये आकाशगामी यान से मुझे आनन्द नहीं आता ||१०||
घत्ता-इसलिए मणिशेखर के द्वारा बहुत दिन मन्त्र की आराधना की गयी। सिद्ध हुई विद्या ने पल भर में लोक में प्रसिद्ध सुशोभित विमान की रचना की ॥६-६॥
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