________________
सप्तम परिच्छेद
२४७
[७-१] [ भरत-वैराग्य एवं त्रिलोकमण्डन-गज-उत्पात-वर्णन ]
ध्रुवक हे श्रेणिक ! इसे छोड़ते हुए इसके आगे समय पाकर कहूँगा ( अभी ) विगत दूपेण वेश्य भषण के द्वारा जैसा जिनेन्द्र पूजा का फल प्राप्त किया गया सुना है उसे कहता हूँ ॥१॥
रामायण में जिनेन्द्र-पूजा का फल इस प्रकार प्रसिद्ध है, प्रसंग-वश कहने में दोष न होने से कहता हूँ ॥१॥ राजा रावण का वध करके और लंका विभीषण को देकर तथा सीता को लेकर जब राम अयोध्या आये तभी भरत को वैराग्य उत्पन्न हुआ ॥२-३।। वह ( भरत ) राघव ( राम ) से कहता है-नाथ ! मुझसे मिलें, तप से तृणवत् कृषकाय मैं यहाँ स्थित हूँ।।।। आप स्वामी हों ( अयोध्या के राजा बनें), मझ बेचारे को क्षमा करें, क्षमा करें ( ताकि ) मैं इसके पश्चात् जिन-दीक्षा लेता हूँ ॥५।। मुझ पर अनुग्रह/कृपा करो, पकड़कर सबके आगे करके आशीर्वाद दें ॥६॥ मोह में पड़कर पिता के द्वारा जो आपको वनवास और मुझे राज्य दिया गया है, इस अविनय को मरने पर भी नहीं भूलता हूँ, वह भव-भव में तीव्रता से सालता है / कष्ट देता है ।।७-८।। राम ने उत्तर दिया-आज से तुम अयोध्या नगरी में सुखपूर्वक राज्य-लक्ष्मी भोगो ।।९।। एकछत्र पृथिवी का पालन करो, पृथिवी के सभी राजा और विद्याधर दास हैं ।।१०।। ऐसा कहे जाने पर भी भरत मन से विरक्ति में ही स्थिर रहे । तब राम ने युवा रानियों को आज्ञा दी ॥११।। प्रमुख नदी और सरोवर में जाकर भरत को सरागी बनाकर घर आओ॥१३॥ उनकी सुख देनेवालो नारियाँ आकर भरत के साथ सरोवर गयीं ।।१३।। (भरत ) जलक्रीड़ा में अचल और अभंग रहकर बारह भावनाओं को भाते हुए स्थिर रहे ॥१४|| ( वे रानियों के ) हाव-भाव और भ्र-भंगिमाओं से विचलित नहीं हुए। ( कवि का कथन है कि ) क्या सुमेरुपर्वत सिंहों से चलायमान हुआ है ? ॥१५।।
घत्ता-( भरत ) सरोवर में जाकर बैठ जाते हैं, स्त्रियों के मुखों को निहारते भी नहीं। उसी समय त्रिलोकमण्डन हाथी अपने बन्धन की खूटी को ऊखाड़ कर सैकड़ों घरों को चूर-चूर करके पृथिवी रौंदता हुआ सरोवर पर आया ॥७-१||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org