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पंचम परिच्छेद
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विराजमान हैं। उन गुरु से भक्तिपूर्वक सूत्र ( आगम ) सुनिएगा || १५ || नगर का राजा परिजनों के साथ गया और उसने भक्तिपूर्वक वीतरागी की वन्दना की || १६ || पश्चात् ( गुरु ने ) दुःख राशि की उन्मोचिनी और सुखदायिनी धर्म-अधर्म सम्बन्धी वार्ता की || १७ || वे छह द्रव्य, (नौ) पदार्थ और सात तत्त्वों तथा सत्य को सोचकर कहते हैं / समझाते हैं || १८ || प्रभुता से सहित स्वर्ग की दो अप्सरा- देवियाँ स्वामी की शरण में आयीं ||१९|| जिनेन्द्र शिवघोष मुनि को नमस्कार करके ( गुरु ) के समीप बैठ गयीं। राजा भी उनके पास जाकर उपहास करता है ||२०||
घत्ता - राजा निर्लिप्त भाव से मुनि से पूछता है – हे स्वामी ! मेरे मन में आश्चर्य बढ़ रहा है । ये दोनों अप्सराएँ कहाँ से सुखपूर्वक उपस्थित हुई हैं ? ॥५- २१ ।।
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[ ५-२२ ]
[ अमरसेन- वइरसेन कृत अप्सराओं का पूर्वभव-वर्णन ]
मुनि कहते हैं - हे राजन् ! क्या पुत्र, क्या मित्र और क्या मकान सभी में झगड़ा है । इसीसे इन्द्र साथ नहीं आया है । ये ( अप्सराएँ ) अभी-अभी उत्पन्न हुई हैं इसी कारण से पीछे आई हैं ||१२|| वह सुनो, जिस पुण्य से सभी लोगों को आनन्द हुआ और ये स्वर्ग में उत्पन्न हुई ||३|| इसी श्रेष्ठ नगर में दोनों (एक) माली की पुत्रियाँ हुईं ||४|| कुसुमावलि और कुसुमलता । इनमें कुसुमलता छोटी थी । इनका पालन-पोषण पारस्परिक स्नेह से हुआ ||५|| वे प्रतिदिन इस श्रेष्ठ नगर में पिता की फूलों से भरी टोकरी लेकर आते हुए मार्ग में स्थित गगनचुम्बी शिखर वाले जिनमन्दिर की देहरी पर एक-एक नया फूल चढ़ाकर प्रणाम करती हैं और प्रतिदिन जय जय स्वर कहकर जाती हैं। इस प्रकार इस स्थान पर कितना ही समय निकल जाता है ।। ६-९ ॥
धत्ता- किसी दूसरे दिन पिता की आज्ञा वश वे दोनों हाथ में पिता की टोकरी लेकर फूलों के लिए सघन वृक्षों में क्षणभर में किसी रस पूर्ण फलवाले अनार की ओर गयीं ॥५- २२||
[ ५-२३ ]
[ कुसुमावलि और कुसुमलता बहिनों की जिनपूजा, सर्पदंश से मरण तथा स्वर्ग प्राप्ति वर्णन ]
वहाँ फूल बीनते हुए एक लता में फूला हुआ बड़ा फूल दिखाई दिया || १ || मैं भी लेती हूँ, मैं भी लेती हूँ कहती है किन्तु जिन-मन्दिर
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