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पंचम परिच्छेद
२०९ घत्ता-जिनेन्द्र-चरणों के भक्त कुमार सुखपूर्वक राज्य करते हुए अपने परिजनों को अनुरंजित करते हैं। किसी दूसरे दिन कुमार राजा के साथ बैठ करके वेसठ शलाका पुरुषों की चरित-कथा सुनते हैं ।।५-१४॥
[५-१५ ] [ मुनि देवसेन का समवशरण-आगमन, अमरसेन-वइरसेन की मुनि-वन्दना
एवं श्रावक धर्म-श्रमण] उसी समय वनपाल डलिया ( टोकरी ) में फल-फूल भर कर लाया ॥१।। नप के आगे डलिया रखकर राजा को प्रणाम करके हँसते हुए. ( वह वनपाल ) कहता है ।।२।। हे ! हे नृप ! मेरी बात सुनो ! आपके वन में देव, मनुष्य, नरेन्द्र और नागेन्द्र से पूजित यतिवर स्वामी देवसेन का हितकारी संघ आया है ।।३-४॥ उन वनपाल के वचन सुनकर राजा ने उठकर उसे वस्त्राभूषण देकर संतुष्ट किया ।।५।। वहाँ आनन्द-भेरी बजवाई। उसकी ध्वनि से नगरवासी आ गये ।।६।। राजा एकत्रित हुए लोगों और परिजनों के साथ मुनिवर की यात्रा के लिए चला ॥७॥ सहर्ष हाथी से वह नन्दन-वन गया और हाथी से उतर कर संतुष्ट होते हुए राजा ने मुनि की तीन प्रदक्षिणाएँ देकर जय-जय शब्द उच्चारण करते हुए प्रणाम किया ।।८-९।। इसके पश्चात् श्रमण-संघ की वन्दना की तथा मुनि देवसेन की बार-बार वन्दना की ॥१०॥ ( राजा अमरसेन ने निवेदन किया ) हे परमेश्वर ( मुनिराज ) ! जो जिनेन्द्र ( भगवान् ) ने भव्य जनों के लिए कहा है वह सुखकारी श्रावक-धर्म कहिएगा ॥११॥ राजा के निवेदन सुनकर देव, मनुष्य और विद्याधरों से पूजित मुनिनाथ ने कहा ॥१२।। हे राजन् ! जीवों की दया से सहित ही धर्म है अतः हे दयालु ! पहले उसे पालना चाहिए ॥१३।। झूठ कभी नहीं बोलें। झूठ बोलनेवालों का तिरस्कार करें ॥१४॥ पराया-धन पाकर मत लाओ। लोग उसे चोर कह कर मारें ॥१५।। परस्त्री-सहवास कभी न करें। उसका सिर मुड़वा करके उसे गधे पर बैठाओ। १६॥ काला मह करके नगर में घुमावें और नाक काटकर नगर से निकाल दें ॥१७॥ ___घत्ता-हे राजन् ! ऐसा करने से लोक के भय से जीव प्राण नाश कर देता है और कूध्यान से मरकर नरकगति पाता है। वहाँ (वह) जिन दुःखों को रोका नहीं जा सकता वे पाँच प्रकार के दुःख (पाता है) ( उस ) कुगति में छेदा जाता है और तिल के समान देह खण्ड-खण्ड की जाती है ॥५-१५।।
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