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प्रस्तावना
२३
जाने पर लकीर को पीटने में जैसे कोई लाभ नहीं है ऐसे ही मनुष्य देह पाकर उसे खो देने में सार नहीं ( १।१४।१-४) ।
कवि ने चिन्तन पूर्वक लिखा है कि नर-देह पाकर अपने अंगों को पूण्य कार्यों में लगावे । जो पैर तीर्थाटन करते हैं, जो हाथ जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैं, जो कान जिनेन्द्र के गुणों को सुनते हैं, जो नेत्र जिनेन्द्र की छवि निहारते हैं, जो रसना जिनेन्द्र का गुणगान करती है और जिस हृदय में जिनेन्द्र देव विराजते हैं वे धन्य हैं। उनका होना सार्थक है। धन वही श्रेयस्कर है जो जिनेन्द्र की पाद-पूजा में व्यय हे ता है। मनुष्य के अंगों और धन की सफलता इसो में है ( १।१०।८-११)।
गतियाँ-कवि ने चार गतियों का उल्लेख किया है। वे हैं-देव, मनुष्य, तिथंच और नरक। इनमें सुख मधु-विन्दु के सदश और दुःख मेरु पर्वत के समान प्राप्त होता है। देवगति में विमान से च्युत होने की छह मास पूर्व से देवों को चिन्ता लग जाती है। इस चिन्ता से उनके हृदय संतप्त हो जाते हैं। उन्हें अकथनीय वेदना होती है। एक-एक कर सेविका देवांगनाएँ विलीन हो जाती हैं। ___मनुष्यगति में, क्षय, खस और खास आदि विविध प्रकार के रोग सताते हैं । माता-पिता, स्त्री-पुत्र और बान्धव आदि के वियोग का दुःख होता है । बध-बन्धन, ताडन, असिघात, दरिद्रता और तिरस्कार जनित दुःख होते हैं। नौ मास पर्यन्त माता के गर्भ में अधोमुख होकर अंगों का संकोच करके जीव इस पर्याय में दुःखी होता है। गर्भ से बाहर निकलने पर इससे आठ गुनी अधिक वेदना सहनी पड़ती है (१११४७-१८)।
तिर्यञ्च गति में शीत, गर्मी, भूख, प्यास, गलकम्बल-छेदन, नुकोली कील का चुभाया जाना, बधिया किया जाना, कंधे पर भार लादा जाना आदि दुःख सहना पड़ता है । जोवन पराधीन रहता है ( १।१५।१-२ ) ।
नरकगति में एक से तैंतीस सागर पर्यन्त दुःख भोगना पड़ते हैं। यहाँ तीव्र ताप और शीतजनित वदना होती है। वज्रतुंडवाले डाँस काटते हैं। घोर घनों की मार, मुद्गरों के प्रहार और कुठार की चोट सहना पड़ती है। करोंत से जीव दो भागों में विभाजित किया जाता है। कडाह में पकाया जाता है। पापड़ के समान चूर्ण-चूर्ण किया जाता है। सूली पर चढ़ाया जाता है। हाथी दाँत से भेदा जाता है। ऊपर उछाला जाता है, असिपत्रवाले वृक्षों की छाया का सेवन करना होता है। अंगों का छेदन-भेदन होता है । बलपूर्वक गर्म लौहनिर्मित पुतलियों से
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