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प्रथम परिच्छेद
॥१२॥ हे दुःख करनेवाले ! देह से धर्म हो ऐसा करो, पुद्गल से स्नेह मत करो ॥१३॥ देह अपनी नहीं है, सभी किराये के समान उसे धारण किये हुए हैं, वह धर्म में बाधा पहुँचाता है तो त्याग दो ॥१४॥ जब जीव ( चेतन ) प्रस्थान करता है तब न समुदाय का सहारा रहता है न मुहूर्त का, न शकुन का और न शक्ति का भी ॥१५॥ उसे जाते हुए बलपूर्वक कोई पकड़ नहीं पाता। जो भी आता है रो-रो कर उठ जाता है ( चला जाता है ) ॥१६॥ युद्धक्षेत्र में कायर वैरी के वश में होकर मर जाते हैं परन्तु ( उनकी) कीर्ति नहीं होती है ।।१७।। जो योद्धा शूरवीरतापूर्वक मरता है वह सुयश से परिपूर्ण होकर महान् पुरुषों के द्वारा पूजा जाता है ( आदर पाता है ) ॥१८।। संसार में अपना कोई नहीं है । लेन-देन तक ही मिलन-संयोग है ॥१९॥ जीव कुटुम्ब रूपी भँवर के गर्त में पड़ा हुआ है। सूकर के समान प्रभुता मानता है ।।२०।। कुटुम्ब-बाँधने को साँकल स्वरूप है । उस साँकल ( जंजीर ) को शीघ्र उतारो, और मृत्यु पर विजय करो ॥२१॥ आशाओं और इन्द्रिय-वासनाओं में पड़े हए हे मन ! तू संसार में संयम लेकर अपने को तारो-तारो (अपना कल्याण करो। भवसागर से तर जाओ) ॥२२॥ __ घत्ता-हे जीव ! ( तु ) कौटुम्बिक भलाई के लिए अनेक पाप करता है । शीत और ताप को सहता है, अपने मरण का भी मन में विचार नहीं करता किन्तु अपने चेतन की भलाई के लिए ( कुछ ) नहीं करता है ॥१-१६॥
[१-१७ ] जीव को कौटुम्बिक स्थिति, कर्म, पुण्य-पाप का स्वभाव तथा
सम्यग्दर्शन धारण करने का परामर्श कर्मराज जोव का अधिकारी है। वह अपराधियों के पास जाकर उन्हें 'पेरता है। उन पर आघात करता है ॥१॥ वह कुटुम्ब रूपी बन्दीघर में बन्द करके आघात करता है। उस समय विद्याधर बाली भी रक्षा नहीं कर सकता है ॥२॥ पत्नी बाह-दण्ड रूपी गले की साँकल है और पुत्रप्रेम रूपी पैरों में प्रचण्ड बेड़ी है ॥३॥ मित्र, माता-पिता और भाई रूपो हाथ में हथकड़ियाँ हैं। मूर्ख जीव शक्ति पाकर भी इस जेल से मुक्त नहीं हो पाता है ॥४।। लोक में मुनियों के वचन हैं कि कर्म योग से अर्थात् उद्यम करने से बन्दियों को साँकल टूटकर झड़ जाती है ॥५॥ (अतः ) अर्हन्त के मार्ग में पुरुषार्थ करो। शक्ति पाकर कायरपन में मत पड़ो, कायर मत
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