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पंचम परिच्छेद
१९३ वचन सुनकर राजा ( वइरसेन का ताऊ ) युक्त वचन कहता है-हे मित्र ! जो पूण्य सहाई होता है तो ज्ञान नेत्रवाले जिनेश्वर कहते हैं कि निश्चय से ( वह ) निधियों के साथ राज्य भोगता है ।।२१-२२॥ ___घत्ता-दुर्जन, पापी, दूसरों को सतानेवाला, ( जो ) दुर्बुद्धि सज्जनों में दोष देखता है, अपने ( दोष ) नहीं देखता, सज्जनों की गोपनीयता भंग करता है वह दुःखदायी नरकगति का बन्ध करता है ॥५-५॥
[५-६] [ अमरसेन-वइरसेन की कोतवाल के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन, अकृत्रिम
चैत्यालय-वन्दना एवं पूर्वभव स्मरण ] कुमारों ने अनेक प्रकार के शुभ वचनों से बहु विनय पूर्वक सौतेली माता से क्षमा कराई ।।१।। इसके पश्चात् राजा ने कोतवाल को बुलाया जिसने मरणकाल में कुमारों को छोड़ दिया था ॥२॥ ( उसके ) गुणों को स्वीकार करके प्रशंसा करते हए उन्हें सभी नये दिव्य वस्त्र देकर उपदेश दिया ।।३।। नगर के बाहर जहाँ उस वर्ण के लोग रहते थे वहाँ उन्हें शरण देते हए रहने को भूमि दी ॥४॥ इसके पश्चात् कुमार धर्म, अर्थ और काम को भोगते हुए सुखपूर्वक रमण करता है ।।५।। आकाशगामी पावली के प्रसाद से दोनों भाई कृत्रिम और अकृत्रिम जिन-प्रतिमाओं की वन्दना करते हैं ।।६।। अपनी सेना सहित वन-क्रीडा और सरोवर तथा वापियों में जल-क्रीडा करते हैं ।।७।। किसी दूसरे दिन वे दोनों भाई सुखपूर्वक घर के झरोखे पर बैठकर देखते हैं ।।८।। उन्हें अपनी चर्या के निमित्त आकाश से आते हुए रत्नत्रय से विशुद्ध दो मुनि दिखाई दिये ॥९॥ वे नगर के एक श्रावक के घर उतरते हैं। उसने पडगाह करके वहीं ( उन्हें ) आहार दिया ॥१०॥ उन्हें अक्षय दान देकर ( दोनों सहोदर ) चले गये और सुरेन्द्र, नरेन्द्र तथा नागेन्द्र जिन्हें नमस्कार करते हैं वे मुनि भी चले गये ॥११।। उपवन में रथ से उतरकर राजा और नगर-वासियों ने स्तुतियाँ रचकर उनकी वन्दना की ।।१२।। इसके पश्चात् कुमार को पूर्वभव का स्मरण हआ कि इन मुनियों के समान हो निश्चय से मुनि व्यापारी के घर आये हैं। हम भाइयों ने ( उन्हें ) अपना भोजन कराया था ॥१३-१४।। धण्णंकर और पूण्णंकर कर्मचारियों ने अशभ को दूर करनेवाले मनियों की वन्दना की है ।।१५।। पूर्वभव में इन्होंने हमें दिव्य-ध्वनि से कर्मनाश की युक्ति प्रकट की थी ॥१६।। दोनों भाई परिवार सहित वहाँ गये और दोनों ने मुनियों की चरण-पूजा करके वन्दना की ॥१७।।
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