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तृताय परिच्छेद
[३-१० । [ राजा परीक्षित मरण, दाह संस्कार एवं नागयज्ञ वर्णन ]
चन्द्र स्वरूप राजा परीक्षित का वियोग न हो अतः सुख पूर्वक सर्प कीलित करो ।।१।। इस प्रकार जो उस कोतवाल के द्वारा कहा गया इस वन-तापस के द्वारा स्वीकार किया गया ।।२।। अधिक क्या कहें राजा श्रेष्ठ मणियों से खचित झालरों का त्याग करके नीचे पड़ गया सोपा ।।३।। सोते हुए रात्रि में वह सर्प द्वारा खाया गया / डसा गया और विष से आविद्ध होकर तत्काल मर गया ।।४।। हाय-हाय कहता / चिल्लाता हुआ नरक गया । ठीक ही है--जिनधर्म के बिना किसे सुगति प्राप्त हुई है ।।५।। इसी बीच सर्प दंश से राजा परीक्षित का मरण सुनकर धनपति ( राजा का कोष रक्षक ) पुत्र-समूह के साथ उसे लेकर घर चला तथा वहाँ से वह उछलकर धनवन्तरि ( वैद्य लाने ) जाता है ॥६-७।। उसने ( वैद्य ने ) कहा-राजा का सर्प से मेल कराओ। धनपति ने वैद्य से कहाकहो कहाँ जावें? ।।८।। वैद्य के कथनानुसार वह धनपति राजपुत्रों के साथ राजा के जीवन के हेतु परीक्षित को लेकर चला ॥९॥ पश्चात् ऊपर कहे हुए धनपति के द्वारा एक वट वृक्ष देखा गया और वह परीक्षित राजा ( वहाँ) भस्म कर दिया गया ॥१०॥ पश्चात् ( भस्म ) उसके द्वारा क्षण भर में हवा के द्वारा उड़ा दी गयी और पानी के द्वारा बहा दो गयी ||११|| सर्प द्वारा दंशित गले से विचित्र चमक उसके द्वारा देखी गयी॥१२॥ लंघन से ताड़ित होकर उसके मरण को प्राप्त होने पर वैनतेय-गरुड़ के द्वारा सर्प-बामी खोद डाली गयी ॥१३॥
घता-वह ( परीक्षित-पुत्र जनमेजय ) सर्पो का होम ( यज्ञ ) करने लगा। कवि कहता है कि वैर भला नहीं होता है। इसी प्रकार नागराज पुण्डरीक दियवर नामक व्यक्ति के घर गया ॥३-१०॥
[३-११] [पुण्डरीक का स्त्री से गुप्त भेद कथन तथा उससे उत्पन्न स्थिति का वर्णन]
दियवर के कुल में उत्पन्न जब अठारह ( पुत्र ) मर गये तब पुण्डरीक हो (शेष) पास में रहा ।।१।। वह बनारस नगर में शास्त्रों का अभ्यास करता है । इसके द्वारा बहुत शीघ्र अर्थ जान लिये जाते हैं ।।२।। उस दियवर के द्वारा उसे अपनी कन्या दी गयी और सभी को सुन्दर भोजन कराया गया ॥३॥ सुखपूर्वक सोते हुए रात में अकेले में इस ऊँचे-तगड़े ( पुण्डरीक ) से उसकी स्त्री ने अपना प्रकट करने को कहा और वह भी सर्प हैं-सत्य
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