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प्रथम परिच्छेद बनो ॥६॥ ज्यों ज्यों यह देह सुख का अनुभव करती है त्यों त्यों अधिक दुःख जानो ॥७॥ यदि देह दुःख सहता है तो जानो कि पापों का क्षय करके यह पुण्य प्राप्त करता है ।।८।। इस प्रकार संसार को वक्र और अस्थिर जानकर संयम को धारण करके अपने को पापों से मुक्त करो ।।९।। क्रोध आदि चारों कषायों का त्याग करके पंचेन्द्रिय-विषयों के प्रसार का निवारण करो ॥१०।। वाह्य और आभ्यन्तर तप करके कर्मों की निर्जरा और पुण्य का संचय करो ॥११॥ अथवा यदि चारित्र का पालन नहीं कर सकता है तो श्रावक के धर्म में चित्त दृढ़ रखो ।।१२।। मनुष्यक्षेत्र के आर्यखण्ड में विद्यमान मनुष्यों के अच्छे कुल और पंचेन्द्रियत्व को पाकर गुरु के द्वारा गृहीत जो मार्ग है वह प्राप्त करके एक चित्त से शुद्ध जैनधर्म का पालन करो ॥१३-१४।। हे जीव ! यह न जानो कि यह मनुष्य-देह और श्रावक के कुल में प्रवेश फिर प्राप्त कर लोगे ॥१५॥ समुद्र के बीच में गिरा हुआ चिंतामणि रत्न देखो कैसे फिर प्राप्त होता है ।१६।।
घत्ता-( अतः ) प्राणप्रिय पच्चीस दोषों से रहित, आठ गुण और आठ अंगों से सहित अकेले इस सम्यग्दर्शन को मन में धारण करो ॥१-१७॥
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सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व-वर्णन धर्म वह है जिसका मूलाधार दया है, देव-अर्हन्त हैं और सुगुरु निर्ग्रन्थ साधु । इन सत्य तत्वों पर श्रद्धा करो ॥१।। गुरु-वाणी को जानो । मिथ्यात्व मार्ग में और कुगुरु तथा कुदेव के पीछे मत लगो ॥२॥ चारित्र से भ्रष्ट मुनीन्द्र और कुल के मार्ग से च्युत होकर भी श्रावक सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥३।। किन्तु सम्यक्त्व-विहीन सिद्धि प्राप्त नहीं कर पाता । अतः जिससे ( सम्यक्त्व हो ) ऐसे एक अर्हन्त को मन में धारण करो ।।४॥ शीतला माता, गो-माता, नाँदिया बैल, चामुण्डा और चण्डी देवी, क्षेत्रपाल और विनायक देवों को प्रमख रूप से त्यागो ॥५।। गणगौर और वत्सवारसा आदि में विश्वास करने के फल स्वरूप नरक-वास प्राप्त करता है ( होता है) ।।६।। वरसा और कुलदेवता आदि में श्रद्धा करने से सम्यक्त्व आधा घट जाता है ॥७॥ जो देव संसार-चक्र में रमता है उनकी सेवा मुक्ति का कारण कैरो ( हो सकती ) है ॥८।। जो सपरिग्रही गुरु अपने ही भार से डूब रहा है वह गुरु दूसरों को कैसे पार लगा सकता है ।।९।। जिस धर्म में जीवों का घात होता है उस धर्म से संसार से पार होना कैसे प्राप्त होता
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