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द्वितीय परिच्छेद
१२७ भोगता है, सम्पूर्ण पृथिवी के राजा (उसके) चरणों में लोटते हैं (चरणों की सेवा करते हैं) ॥११|| इन्हें मन में एक जन्म से दूसरे जन्म की मुक्ति का हेतु जानो-ऐसा कहकर विद्याधर अपने स्थान पर चले गये ।।१२।। हे मेरे प्रिय प्रीतम ! विद्याधर को कहते हुए जो मैंने सुना है वह तुरन्त करो ॥१३।। वे दोनों आम्र फल शीघ्र लाओ और राह से भटके हुए भाइयों को विधिपूर्वक दीजिए ॥१४।। वह विद्याधर कीर दोनों भाइयों के उपकार के लिए जहाँ आम के फल थे उस पर्वत की शिखर पर गया ।।१५।। वह मुंह से पकड़ पकड़ कर उन्हें लाकर पृथिवी पर गिराता है ।।१६।। इस प्रकार अभ्यागतों को विधिपूर्वक दान देकर वह सुखपूर्वक आम्र पर बैठ जाता है ।।१७।। वइरसेन ने चतुर विद्याधरों द्वारा जो कहा गया उसे सुना ॥१८॥ इसी समय अमरसेन जाग गया। अपने भाई को सुलाने के लिए जिससे कि (उसके) हृदय का भय छोड़कर भाग जाता है, वह सुखपूर्वक बैठ गया और पहरा देता है ।।१९-२०।। तभी कुमार के आगे दो आम्र फलों का सुन्दर गुच्छा ऊपर से आ गिरा ।।२१॥ वइरसेन ने उन्हें लेकर गाँठ में बाँध लिया । बुद्धिमान् बड़ा भाई यह जान नहीं पाता है ॥२२॥
घत्ता-जिसके द्वारा मन इच्छित (वस्तु) प्राप्त कर ली गयी है वह छोटा भाई बड़े भाई की सहायता से सो गया और भोर होते ही उठ गया। उसने अपने मन में संतुष्ट होकर बड़े भाई को प्रणाम किया ॥२-१२।।
[२-१३ ] [अमरसेन-वइरसेन का वन से प्रस्थान, सरोवर पर विश्राम और
वइरसेन को रत्न-प्राप्ति वर्णन ] वे दोनों धीर-वीर महा भयानक उपवन को छोड़कर प्रभात होते ही चल दिये ॥१॥ मार्ग में जाते हुए उन्हें शरद् ऋतु की पूर्णिमा के चन्द्र के समान स्वच्छ कमल और जलवाला सरोवर दिखाई दिया ॥२॥
बड़ा भाई वहाँ-अनेक प्रकार के वृक्षों और पक्षियों के कलरव से सुशोभित सरोवर के बाँध पर जाता है ॥३।। इसो समय वइरसेन ने वस्त्र को गाँठ खोलकर पथ-भ्रमित बड़े भाई को अविद्यमान देव और राजाओं की ऋद्धि को देनेवाले बड़े आम्रफल को दिया ।।४-५॥ दोनों कुमार शुद्धि (शौच आदि निवृत्ति ) के लिए उद्यान भूमि पर ( वन में) भिन्न-भिन्न हो गये ( पृथक् पृथक् स्थान पर चले गये ) ॥६।। इसके पश्चात् लौटकर वे सरोवर के किनारे आये। उन्होंने शुद्ध जल से शारीरिक शुद्धि की ॥७॥
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