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द्वितीय परिच्छेद
१२९ वइरसेन ने अपने मन में जैसा शुक-दम्पति से सुना था वैसा करने का विचार किया ॥८॥ छिपकर वह प्रमाण-फल हेतु (सत्य-असत्य जानने को) सुखकारी आम्रफल निगल गया ॥९॥ मुँह धोता है और मुंह में पानी भरता है तथा नियमानुसार पृथिवी पर कुल्ला करता है ।।१०। इच्छानुसार लौकिक सुन्दर वेष (वस्त्राभूषण) देनेवाले वहाँ पाँच सौ रत्न शीघ्र गिरते हैं ।।११।। यक्षिणी (कोरि) के कहे अनुसार रत्न गिरते हो अपने वस्त्र में बाँधकर छिपा लिये ॥१२॥ बड़े भाई को इसका कोई भेद नहीं दिया । उसने बड़े फल के रहस्य की प्रतीक्षा की ॥१३॥
पत्ता-गुण रूपी रत्नों की खदान दोनों भाइयों ने स्वच्छ जल में स्नान किया। पश्चात् निर्मल चित्त से वे दयालु सुखपूर्वक सरोवर से बाहर निकले ॥२-१३।।
साहु महणा के पुत्र चौधरी देवराज के लिये रचे गये महाराज श्री अमरसेन के चारों वर्ग की कहने में सरल कथा रूपी अमृत रस से भरपूर इस चरित में श्री अमरसेन-वइरसेन की उत्पत्ति, बालक्रीड़ा, विद्याभ्यास,
और साथ-साथ उनके गमन का वर्णन करनेवाला दूसरा परिच्छेद सम्पूर्ण हुआ ।संधि।।२।।छ।। __जब तक सर्वज्ञ की वाणी का संसार में वास है, जब तक हिमालय पर्वत है, जब तक पृथिवीतल पर तरंगित गंगा बहती है, जब तक शेषनाग पृथिवी का भार धारण किये हैं, और जब तक समुद्र में वेगपूर्वक माला रूप में उठती हुई लहरों की गर्जना है, तब तक देवराज अपने पुत्र-पौत्र आदि के साथ सुखी रहकर आनन्दित रहें ।।इति आशीर्वाद।।१॥
जिहनइ जितनउ सिरजियउ, धण्णु विवसाउ सहाउ।
तिहंनइ तितनउ संपज्जइ, जिंह भावइ तहिं जाउ ॥ जिसे जहाँ रुचिकर हो वह वहाँ ही क्यों न चला जावे किन्तु उतना और वैसा ही वह धन, व्यवसाय और स्वभाव वह पाता है जैसा और जितना जिसने सृजन किया है।
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