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तृतीय परिच्छेद
१३७ [३-४ ] [ वइरसेन का धनापहरण एवं घात सम्बन्धो वेश्या का पुत्री से
विचार-विमर्श ] अप्सरा के समान सुन्दर वेश्या का लोभी वह ( वइरसेन ) उस वेश्या के घर सूर्योदय होने पर वमन करता है ॥ १।। आम के फल के गुणस्मरण से पाँच सौ सुन्दर रत्न गिरते हैं ।। २ ।। कुमार स्वेच्छानुसार द्रव्य भोगता है । वह दरिद्रियों की तीव्र दरिद्रता नष्ट करता है ।। ३ ।। राजा ने बार-बार ढंढवाया किन्तु उन्हें मदनराज सहोदर नहीं मिला ।। ४ ।। वइरसेन नगर में वेश्या के साथ सुखपूर्वक क्रोडा करते हुए सहवास करता है ।। ५ ।। बहुत दिन निकल जाने के पश्चात् धन की लोभी वृद्धा वेश्या ने अपनी पुत्री से पूछा, कहा।। ६ ।। पुत्रि ! रो-रोकर बिना व्यापार के अमित द्रव्य होने का भार से रहस्य पूछो ।। ७ ।। हे पूत्री ! वह रति के समान विलास करता है। युक्ति और नीति पूर्वक इसे मारकर वह इससे ले ले ॥८॥ ऐसा सुनकर पुत्री सुन्दर वचन कहती है-हे माता! तुम्हारी धन से तृप्ति नहीं होती ।। ९ ।। बिना अपराध का वध करना युक्त नहीं । यह अपना मित्र है, घर में धन लाता है ।। १० । पुत्री के वचन सुनकर लोभ में आसक्त और पाप से लिप्त वह अपनी पुत्री को क्रोधित होकर कहती है कि मत झगड़ो, मत मारो। इससे क्रोध न करूँ तो किसके साथ करूँ।। ११-१२ ॥ उसे ( वइरसेन को) और रत्नों को भी लाकर हृदय को भस्म करनेवाली वह शीघ्र जाकर हाथी के नीचे दे देती है ॥१३॥ वह बार-बार हाथी पर कुपित होती है किन्तु वह ( वइरसेन के ऊपर ) नहीं चढ़ता है। वह वेश्या हाथ मलती है और हृदय विसूर-विसूर कर रोती है ॥ १४ ॥
घत्ता-इसके पश्चात् वह-व्यभिचारियों की लुटेरिन, कुट्टनी कहती है-हे पुत्री, एकाग्र मन से सुनो ! जन-मनहारी यह देवपुरी नामक नगरो में [ हुआ ] निंद्य ग्रह-देवता दिखाई देता है ।। ३-४ ॥
[ वेश्या द्वारा पुत्री को कही गयी देवपुरी की राजकथा-वर्णन ]
धन और धान्य से परिपूर्ण, सुख की निधान, देवों की सुखकारी, विद्वानों की खदान उस नगरी में शत्रुजन रूपी हाथी को विदारने के लिए प्रचण्ड मृगेन्द्र स्वरूप देवदत्त नृपति था ।। १-२ ॥ ज्ञानवान्, जिन गुरु के
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