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द्वितीय परिच्छेद
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देखा गया। वह दुष्टा उन कुमारों के पराक्रम को सहन नहीं कर पाती है || २-३ ॥ दुष्टा दोनों भाइयों के करोंत से दो टुकड़े कराकर राजा से मरवाने का विचार करती है ||४|| इन पर उसने मिथ्या दोष लगाया और शीघ्र इनसे वह रूस जाती है, खाना नहीं खाती है ||५|| वह विचारती है जैसे सूर्य की तेज गति के आगे पतंगे क्या कर सकते हैं ऐसे ही इन कुमारों के आगे मेरा पुत्र क्या कर सकता है || ६ || अति बलशालियों को इन्द्र पूजता है । इनके तेज की किससे उपमा की जाय ||७|| ऐसा विचार कर कुमारों के दुःख देने की शल्य के दुःख से दुःखी वह सचित घर में बैठ जाती है ||८|| इसी बीच सूरसेण गजपुर-नरेश की सेवा में गया और नरेश की क्रीड़ा में पहुँचा ||९|| वहाँ राजा ( देवदत्त ) क्रीड़ा करके घर आया । दुष्ट रानी स्मरण करके शल्य मन में धारण कर लेती है ॥ १०॥ मौन लेकर वह सेज पर सो गयी, न किसी से बोलती है न देखती है ॥ ११॥ उसी समय राजा ने घर में प्रवेश किया । वह अपनी प्राणप्रिय प्रिया नहीं देखता है ॥ १२ ॥ मिथ्याभाषण की खदान वह रानी रति-स्थान में (भी उसे ) दिखाई नहीं दी । वह मूर्खा जहाँ बैठी थी राजा पूछकर वहाँ गया ||१३|| हर्षित चित्त से उसके पास बैठ गया । ( वह ) हृदय की बात कहने को कहकर हाथ पकड़कर उठाता है || १४ || पूछता है - हे देवी! किस कारण से रूस कर सोयी हो ? जो तुझे दुःखकर हो उसी का वध करूँ ॥ १५ ॥ वह उसे कुछ भी उत्तर नहीं देती है । मौन रहते हुए करवट बदल लेती है, बोलती नहीं ||१६|| इसके पश्चात् राजा बार-बार विनय करता है, उसके मन को अच्छे लगनेवाले ललित अक्षरों से कथाएँ कहकर, रत्नाभूषण बनवाने का वचन देकर मनाते हुए ( उसके ) पैरों में गिरता है । पैर पड़ता है ।। १७-१८ ॥
धत्ता - हे मेरी प्रधान रानी ! जो तुझे अच्छा न लगता हो, बहुत दुःख देता हो, जो तुम्हारा शत्रु हो उस अपने प्रतिघाती को मुझे शीघ्र बताओ, तत्काल उसे मारता हूँ ॥२-५॥
[ २-६ ]
[ अमरसेन- वइरसेन के सिर-भंजन की राजाज्ञा वर्णन ]
उस राजा की विनय सुनकर ( रानी कहती है ) - हे राजा ! सुनिये । जिस दिन गजपुर नगर से ( आप ) स्वामी के पास गये उसी दिन आपके घर आग लग गयी ।।१-२।। अमरसेन वइरसेन के मुख से निकली वाणी अति वक्र तथा दुःख जनक और कम्पन उत्पन्न करनेवाली है || ३ || मेरे शील
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