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प्रस्तावना
३३ ग्रामों में कोटवार प्रायः इसी जाति के हैं। इस ग्रन्थ में कोटवार को प्रजा का रक्षक एक राजकीय कर्मचारी बताया गया है (४।१२।१६ ) । कवि ने राजा के द्वारा इस कर्मचारी को नगर के बाहर रहने के लिए भूमि दान में दिये जाने का भी उल्लेख किया है ( ५।६।४)।
आचार्य जिनसेन ने अस्पृश्य शूद्रों का नगर के बाहर आवास बताया है। अतः आचार्य जिनसेन के अनुसार ये अस्पृश्य शूद्र ज्ञात होते हैं।
खस, वर्वर, पुलिंद : अमरसेनचरिउ में खस, वर्वर और पुलिन्द जातियों का निर्देश भी किया गया है तथा बताया गया है कि जहाँ इनका आवास होता है वहाँ जैनधर्म नहीं होता ( ५।८।९)। ये अनार्य देशों के नाम हैं । यहाँ के निवासी अनार्य होते हैं । कवि रइधू ने पासणाहचरिउ में यहाँ तक लिखा है कि जहाँ इनका निवास हो, स्वप्न में भी मन को वहाँ न जाने देवे।
खस-बब्बर-भिल्ल पुलिंदगणु । जहिं णिवसइ पावासत्तमणु ।। सुवणंतरि तहिं ण वि मणु करए । सो वीयउ गुणवउ पुणु धरए ॥3
जन-विविधता समाज में सत् और असत् दोनों प्रकार के मनुष्य थे। कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में ऐसे जन समुदाय का उल्लेख किया है जिनके कार्य निंद्य और समाज विरोधी थे। चोर, चाड. कुसुमाल, दुष्ट, दुर्जन, क्षुद्र, खल और पिशन तथा ढीठ ऐसे ही लोग थे ( १।३।१४)। इनमें स्वामी के जाने बिना वस्तु चुरानेवाले चोर, कपट पूर्वक व्यवहार करनेवाले चाड, लोभवश कुसुमवत् द्रव्य-संचय करनेवाले लुटेरे-कुसुमाल, कलुषित हृदयवाले दुष्ट, निंद्य आचरणी दुर्जन, निम्न जन क्षुद्र, शरारती आदमी खल और चुगलखोर पिशुन कहे गये हैं। __ कवि ने दुर्जन-स्वभाव का चित्रण करते हुए उसे काम, क्रोध, मान और लोभ में आसक्त बताया है। उन्होंने उसकी उपमा सर्प और चलनी से की है तथा बताया है कि छिद्र देखकर जैसे सर्प हितकारी दूध को त्याग देता है ऐसे ही दुर्जन हितैषी प्रजा का भी साथ नहीं देता। वह चलनी के समान सार वस्तु का भी त्याग कर देता है। वह पात्र और अपात्र का भेद
१. महापुराण : १६।। २. डॉ० आर० के० चन्द्र, प्राकृत-हिन्दी कोश । ३. रइधू-ग्रन्थावली : भाग-एक, पृ० ८८ ।
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