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प्रथम परिच्छेद
द्वारा कहा गया ।।७।। हे अग्रवाल-कुलरूपी कमल के लिए सूर्य के समान, पण्डित जनों के मन की आशा को पूर्ण करनेवाले, जैनधर्म में धुरन्धर, गुणों के आगार तथा या के प्रसार से दिशा-दिशान्तरों को धवल बनानेवाले, वौधरो महणा के सुपुत्र सुनो, अपने मन में कलिकाल प्रकट हो गया है ऐसा 'वेचार धारण करें ।।८-१०।। दोपों को ग्रहण करनेवाले दुर्जन और मूर्ख वृथिवी पर प्रचुरता से बढ़ रहे हैं ।११।। हे साहु ! मेरी बात सुनो, अपने न में पार्श्वनाथ को धारण करो ।।१२।। शास्त्रार्थ में कुशल (हे चौधरी) श्री अमरसेन-वइरसेन के चरित को लय और रसों से भरो ॥१३।। पृथिवी र उनका श्रेष्ठ वंश ऐसा प्रतीत होता है मानों होन पुरुषों को दुस्साध्य नादिनाथ का वंश हो, जहाँ श्रेष्ठ तप धारण करनेवाले बाहुबलि जैसे पुरुष, प्रमुख स्त्रियाँ, और जैन आचार्य सिंह जन्मे ।।१४-१५।।
घत्ता-उसके ( पंडित माणिक्कराज के ) वचन सुनकर मन में पुलकेत होकर देवराज कहता है हे बालब्रह्मचारी बुद्धिमान पण्डित माणिक्कराज मेरी एक छोटी सी बात सुनो ।।१-६।।
[१-७] i० माणिक्कराज के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए अमरसेन-वहरसेन का
चरित-श्रवण हेतु निवेदन एवं पं० जी द्वारा स्वीकृति अपने घर में उत्पन्न कल्पवृक्ष के सुखद फल को कौन नहीं चाहता ? ।१।। यदि पुण्यकर्म से कामधेनु प्राप्त हो जाय तो धूलि उड़ानेवाले हाथी को आश्रय देकर उसे कौन घर से निकालेगा ? ।।२।। आपने मेरे प्रति स्वयं कृपा की है। हे ( कविवर ) आज मेरा जीवन सफल हो गया ।।३।। कविजनों के दुर्लभ गण जिसमे प्राप्त हा वह मेरा जन्म धन्य है और चित्त प्रसन्न है ।।४। यह अज्ञानी जीव मोहवश अनन्तानन्त काल तक संसार की वविध योनियों में भ्रमण करता है ।।५।। जिस किसी प्रकार जब वह तरुगाई को प्राप्त करता है तो काम के वशीभत होकर वैर भाता है ।।६।। उचित और अनुचित का भेद भी नहीं जानता। वह न अर्हन्तदेव को नानता है, न शास्त्र को और न गरु को ॥७॥ धन के लिए खेद-खिन्नित होकर दसों दिशाओं दौड़ता है किन्तु पर से भिन्न चेतन का ध्यान नहीं करता ।।८।। लोभ में बंधकर असत्य भाषण करता हुआ परधन एवं परस्त्रयों का मन में स्मरण करता हुआ, मिथ्यात्वरूपी विषयरस के पान में तृप्त होता हुआ किसी भी प्रकार जिनधर्म को प्राप्त नहीं करता ।।९-१०॥
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