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प्रथम परिच्छेद
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सुनी है || १३|| लेखन के अठारह भेद मैं नहीं जानता हूँ । शब्दों के शुभ और अशुभ हेतु ( भी ) नहीं जानता हूँ || १४ || बोलते हुए वायु स्खलित हो जाती है ( तो भी ) अनुराग पूर्वक ललित अक्षरों (से) कहता हूँ ॥ १५ ॥ इस महान शास्त्र से मुझे स्नेह है किन्तु मेरे हृदय में शंका बढ़ रही है ||१६|| कलिकाल में कठिनाई आती है । लोग कुविचारी और दरिद्रता से दग्ध, मिथ्यात्व से लिप्त, दुर्व्यसनों में आसक्त, धर्म से च्युत और प्राण चले जाने पर भी मदिरापान में मत्त हैं ।। १७ - १८ || बुद्धिहीन और स्नेहविहीन ऐसा जनसमूह घर-घर में अवगुणों को प्रकट करता है ||१९|| विविध प्रकार के दुराशयी दिखाई देते हैं । वे जिनमत से रहित होकर चारों गतियों में भ्रमण करते हैं ||२०||
धत्ता - सोच-विचार त्याग करता हूँ । इन्द्रिय-जयी जिनेन्द्र की पूजा करता हूँ । दोषों का त्याग करके सम्यकत्व का निर्वाह करता हूँ । उदासीनता पूर्वक मन स्थिर करके गणधर मुक्त हुए तो फिर क्या हमें सुख नहीं ( होगा ) ? अर्थात् अवश्य प्राप्त होगा ॥ १-८ ।।
[ 8-8 ]
कथा-प्रारंभ : वीर-समवशरण का विपुलाचल पर आगमन और वहाँ श्रेणिक का गमन
कृत कर्म महान् है और बुद्धि यद्यपि तुच्छ है ( तो भी ) यह सुकथा धृष्टतापूर्वक प्रकट करता हूँ-कहता हूँ || १ || हे भव्यजन ! क्षण भर में संकल्प और विकल्प त्याग करके स्थिर मन से सुनो ||२|| इस जम्बूद्वीप में श्रेष्ठ और पवित्र छह खण्डों से सुशोभित भरतक्षेत्र है || ३ || उसमें मगध देश है और मगध देश के मध्य में स्थित मनभावन श्रेष्ठ राजगृही नगर सुहावना लगता है ||४|| धन-धान्य से समृद्ध और बुधजनों से सहित वह नगर ऐसा प्रतीत होता है मानो देव और विद्याधरों का नगर हो आकर प्राप्त हो गया हो ||५|| उसमें अर्हन्त के भक्त चारों वर्ग के लोग रहते हैं । राहो भी ( वहाँ ) स्थिर चित्त से जिनेन्द्र को पूजा करता है || ६ || उस नगर में शत्रुओं को भय उत्पन्न करनेवाला तथा प्रजा का पालन करनेवाला राजा ( श्रेणिक ) राज्य लक्ष्मी को सुखपूर्वक भोगता है ||७|| उसको रानी चेलना अमृत के समान मिष्टभाषिणो जिनशासन की भक्त और सौन्दर्य की खदान है ||८|| वे दोनों सुखपूर्वक राज्य करते हुए विभिन्न दिशाओं में परस्पर में मन - इच्छित रति-सुख भोगते हैं ||१९|| उसी समय विपुलाचल पर्वत के शिखर पर अतिशयों से मण्डित, इन्द्र के द्वारा पूजित, अठारह दोषों से रहित, आठ प्रातिहार्यों से सहित आनन्दकारी जिनेन्द्र तीर्थंकर
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