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प्रस्तावना
४५.
आता है । कवि ने कथा के इस प्रसंग में स्मरणालंकार का सुन्दर प्रयोग किया है । द्रष्टव्य हैं निम्न पंक्तियाँ
पुणु दिट्ठ कुमारह भउ सरे वि । पुव्वहं भवाइं इणु समु णिएवि || विवहारिय घर सम्मावियाई । भुजाविय भोयणु अप्पु भाई ||
[ ५।६।१३-१४ ] रूपक अलंकार : प्रस्तुत काव्य में कवि ने रूपकों का प्रयोग करके अपने भावों को स्पष्ट किया है । उदाहरणार्थ --
जो अइरवाल कुल कमल भाणु । सिंघल कुवलयहु वि सेयभाणु || १ | ४ | ३
प्रस्तुत यमक में कवि ने चौधरी चीमा का परिचय प्रस्तुत किया है । उन्होंने उन्हें अग्रवाल कुल रूपी कमल के लिए सूर्य और सिंहल गोत्र रूपी कुवलय के लिए चन्द्रमा बताया है । जैसे कमल सूर्य तेज को पाकर और कुवलय चन्द्र- रश्मियों को पाकर विकसित हो जाते हैं ऐसे ही अग्रवालकुल रूपी कमल तथा सिंहल गोत्र रूपी कुवलय चौधरी चीमा से विकसित हुए थे । यहाँ चौधरी चीमा को कवि ने सूर्य और चन्द्र का रूपक दिया है । ये दोनों रूपक उपमेय के गुणों की अभिव्यञ्जना करते हुए काव्य-सौन्दर्य की झाँकी प्रस्तुत कर रहे हैं ।
उत्प्रेक्षा अलंकार : इस अलंकार के अनेक प्रयोग मिलते हैं । कवि ने इसका प्रयोग ननु अर्थवाची संस्कृत शब्द 'णं' पूर्वक किया है । उदाहरणार्थ प्रस्तुत पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं
सट्टाल सतोरण जत्थ हम्म |
मण- सुह संदायण णं सुकम्म || १।३।५
प्रस्तुत पंक्तियों में रुहियासपुर नगर के भवनों का वर्णन करते हुए उन्हें अट्टालिकाओं और तोरणों से युक्त बताया गया है । मन को ये भवन सुखकारी लगने से कवि ने कल्पना की है कि "ये भवन ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे सत्कर्म हों" अर्थात् इनसे मन को ऐसा सुख मिल रहा है जैसा सुख सत्कर्मों से प्राप्त होता है । यहाँ प्रस्तुत भवनों में अप्रस्तुत सत्कर्म की संभावना किये जाने से उत्प्रेक्षा अलंकार है ।
स्वभावोक्ति अलंकार : कवि ने प्रस्तुत काव्य में जीवों के स्वभावों की अभिव्यक्ति भी की है । बालक स्वभाव को बताने के लिए उन्होंने उसे
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