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अमरसेणचरिउ अनुप्रास : प्रस्तुत काव्य में अनुप्रास के पाँच भेदों में छेकानुप्रास और अन्त्यानुप्रास अलंकारों का एक साथ प्रयोग हुआ है। पंक्तियाँ निम्न प्रकार हैं
मारु मारु पभणंतु सुकुद्धउ ।
रे कहि जाहि जमग्गइ लद्धउ ।। ४।१३।२१ यहाँ 'मारु मारु' पद में म और र व्यंजनों के समुदाय का एक ही क्रम में पुनरावृत्ति होने से छेकानुप्रास अलंकार तथा पाद के अन्त में संयुक्त द और व्यंजनों सहित उ स्वर की आवृत्ति होने से अन्त्यानुप्रास अलंकार भी है । इस काव्य में इस अलंकार का प्रत्येक यमक में प्रयोग हुआ दिखाई देता है । वृत्यनुप्रास का प्रचुर प्रयोग हुआ है। उदाहरण स्वरूप निम्न यमक द्रष्टव्य है- चउहट्टय चच्चर दाम जत्थ ।
वणिवर ववहरहि वि जहिं पयत्थ ।। १।३।६ इस यमक में च और व वणों की अनेक बार तथा थ वर्ण की एक बार आवृत्ति हुई है । वर्णों की ऐसी आवृत्ति में वृत्यनुप्रास कहा है। एक ही स्थान से उच्चरित व्यंजनों के प्रयोग में श्रुत्यनुप्रास बताया गया है । कवि ने ऐसे व्यंजनों का प्रयोग भी बहुत किया है। उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है एक यमक की पंक्ति
'जहिं वियरहिं वर चउवण्ण लोय' । १।३।१० इस अर्धाली में तालु स्थान से उच्चरित ज, य, च वर्णों का प्रयोग होने से यहाँ श्रुत्यनुप्रास है।
उपमा : कवि ने उपमेय के साथ उपमानों के भी प्रायः उल्लेख किये हैं । यहाँ एक उदाहरण द्रष्टव्य हैएहाणु कराइ विदुहु वंधवेहि । पहिराविय वत्थई ससि समेहिं ॥
-१।२१।१ यहाँ वस्त्र चन्द्रमा के समान बताये गये हैं। वस्त्र उपमेय है और शशि उपमान । चन्द्रमा का वर्ण धवल माना जाने से उपमान शशि उपमेयवस्त्रों की उज्ज्वलता ( सफेदी) का सूचक है। उपमान और उपमेय दोनों का वर्ण समान होने से उपमा अलंकार है। यहाँ सम शब्द सादृश्यता का वाचक है।
स्मरणालंकार : चारण मुनियों को देखकर अमरसेन-बइरसेन को पूर्व भव में ऐसे मुनियों को अपने द्वारा आहार कराये जाने का स्मरण हो
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