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प्रथम परिच्छेद श्री पण्डितमणि-माणिक्क विरचित
अमरसेनरित
सन्धि --१
[१-१ ] तीर्थकर-स्तुति एवं अर्हन्त-वाणी-वन्दना पत्ता-मैं (कवि माणिक्कराज) परमसुख के कारण-स्वरूप तीर्थंकरों को प्रणाम करके मोक्षसुख रूपी रस से पूरित और भव्य जनों को सुख देने तथा दुःखों का निवारण करने में कारण स्वरूप श्री अमरसेन चरित्र का वर्णन करता हूँ ॥१॥
जिन-श्रत के निधान सभी तीर्थकरों में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ, सभी दोषों और दुर्गतियों का निवारण तथा परमसुख के करने वाले जिनेन्द्र श्री अजितनाथ, सुखों के निधान तीर्थंकर सम्भवनाथ, भव्यजनों के विघ्नों का नाश करनेवाले अभिनन्दननाथ, श्रेष्ठ विचारों में लीन श्री सुमतिनाथ, परमपद में लीन पद्मप्रभ, राग-द्वेष से रहित जिनेन्द्र सुपावनाथ, कमल को विकसित करनेवाली चन्द्रमा की किरणों के समान सुखकारी जिनेन्द्र चन्दप्रभ, तीनों लोकों में वन्द्य जिनेन्द्र पुष्पदन्त, सम्पूर्ण व्रतों में प्रवीण जिनेन्द्र शीतलनाथ, शिवपद में नित्य लीन रहनेवाले श्रेयांसनाथ, इन्द्र द्वारा अचित जिनेन्द्र वासुपूज्य, विमलतर गुणों से सूर्य स्वरूप विमलनाथ, क्रोध, मान, माया रूपी शत्रुओं और मरण से मुक्त अनन्तनाथ, धर्म और आगम-ज्ञान के भण्डार जिनेन्द्र धर्मनाथ, जग में प्रधान जिनेश्वर श्री शान्तिनाथ, विमलज्ञानधारी और चीटी आदि क्षुद्र जन्तुओं पर दया करनेवाले श्री कुन्थनाथ, लोकाकाश और अलोकाकाश के ज्ञाता अरनाथ, कर्म-व्याधि से रहित श्री मल्लिनाथ, शिवरमपी के स्वामी मुनिसुव्रत, इसके पश्चात् कमों के कृतान्त-स्वरूप जिनेन्द्र नमि, भयभीतों के शान्तिदाता श्री नेमिनाथ, बहुविघ्नों का नाश करनेवाले श्री पार्श्वनाथ आर जारी गतियों के नाशक, जिनके कल्याणकों के पवित्र क्षेत्र हैं, तथा जिन्हान धर्मसूत्र २.५ म प्रकट किनाउन जिनवर वर्द्धमान को प्रणाम करता हूँ। में (कवि) अहन्तों का दास और उनके चरमों का भक्त हूँ ।।र-१५।।
घता-इन सभी तीर्थंकरों को और जो इस धरणी पर हो चुके हैं तथा आगे होंगे उन सभी को प्रणाम करने के पश्चात् तीनों लोकों में प्रधान, कुमति को दूर करनेवाली अर्हन्तों की वाणी को निज हृदय में धारण करके (उसे नमस्कार करता हूँ)॥१।
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