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प्रस्तावना
३७ शीघ्र त्याग देती है तथा हाथ पकड़कर अपने घर से निकाल देती है। लोभान्ध होकर वह नये-नये लोगों को शरण देती है। वह अपनी नहीं होती । कोई भी उसका चरित्र नहीं जानता है ( ४७।३-८)।
तस्कर-वृत्ति : कवि ने कथा के माध्यम से यह तथ्य उजागर किया है कि ठग को महाठग मिल ही जाता है। चोर चोरी करके दुःखी ही होते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में किसी योगी को तीन विद्याओं-कथरी, यष्टि और पाँवड़ो का सिद्ध होना तथा चार चोरों द्वारा योगी का वध करके तीनों वस्तुओं का चुराया जाना बताया गया है। बटवारे पर चोर झगड़ते हैं। बइरसेन झगड़ा निपटाने का वचन देकर तथा चोरों से तीनों वस्तुएँ लेकर और पैरों में पांवड़ी पहिन कर आकाश में उड़ जाता है । जोर हाथ मलते रह जाते हैं। माथा कूट-कूट कर रोते और करनी पर पछताते हैं (४।३।१-१६)।
_ इस प्रकार इस प्रसंग को देकर कवि ने समाज में चोरी न करने का भाव उत्पन्न करने का यत्न किया है जिसमें वे सफल हए प्रतीत होते हैं ।
दीन वचन : सज्जन पुरुष का कर्तव्य है कि वह अभिमान त्याग कर स्वाभिमान को रक्षा करे। पुरुषार्थी को दीन वचन युक्त नहीं होते । कवि को मान्यता है कि वन में हाथी, सिंह और सर्पो की सेवा करना अच्छा है, वृक्षों के पत्ते और कन्दमूल खा लेना अच्छा है, तृणों की शय्या पर सो लेना अच्छा है और वक्षों की छाल पहिन लेना भी अच्छा है किन्तु दोनता भरे वचन बोलना ठीक नहीं। सज्जन यदि अर्थ विहीन होता है तो वह जंगल में भले रह लेता है किन्तु दीन वचन नहीं बोलता। जो बुद्धिमान् अभिमान रहित होकर स्वाभिमान की रक्षा करता है निश्चय से वह हाथी पर असवार होता है। भाई का धनहीन होना ठीक नहीं है (३।३।१३-१८)।
गुरु का स्वरूप और महत्त्व : कवि ने एक अक्षर का ज्ञान करानेवाले को भी गुरु को संज्ञा दी है तथा महत्त्व दर्शाते हए लिखा है कि जो ऐसा नहीं मानता वह खान योनि में उत्पन्न होता है ( ३११२।७-८, ११ ) । उन्होंने यह भी लिखा है कि गुरु का वध करनेवाला व्यक्ति मरकर नरक जाता है ( ३।१२।१४ )।
यहाँ गुरु का अर्थ अध्यापक है। ये गुरु नहीं हैं जिन्हें जैन अपना आराध्य मानते हैं। __ मातंग : ये राजकीय कर्मचारी होते थे। राजा की आज्ञा से अपराधियों का वध करना इनका कार्य था। प्रस्तुत ग्रन्थ में ये राजा की
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