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अहिंसा के अछूते पहलु. बेवकूफ लोग हैं, रास्ते का ध्यान ही नहीं रखते, बर्तन को बीच में रख देते हैं। यह दोषारोपण भी हुआ दूसरे पर । अपने आपको आदमी बचा लेता है। इस बचाने वाली वृत्ति ने सचमुच अहिंसा की कब्र खोद दी। जाने-अनजाने इस व्यावहारिक अहिंसा की धारणा ने पारमार्थिक अहिंसा की अन्त्येष्टि कर दी । हमने उसको भुला दिया ।
आज हम सारे समाज का विश्लेषण करें, प्रत्येक व्यक्ति का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि पारमार्थिक अहिंसा के लिए चिन्तन का कोई अवकाश नहीं है। दूसरे पहलू के लिए, दूसरे पक्ष के लिए हमने सारी खिड़कियां और सारे दरवाजे बंद कर दिए हैं। केवल व्यवहार की बात चल रही है। और हमारा प्रश्न भी है कि मनुष्य में हिंसा का जन्म कैसे हुआ ? व्यवहार की भूमिका पर चलते-चलते अगर हिंसा का जन्म नहीं होगा तो और कब होगा ? कैसे वाली बात हमारे सामने क्यों आती है ? हमें इन दो शब्दों-- व्यवहार और परमार्थ पर विशेष ध्यान देना है। यदि हमारा ध्यान इन पर केन्द्रित होगा तो मनोवैज्ञानिकों, प्राणी-वैज्ञानिकों और आनुवंशिकी वैज्ञानिकों द्वारा उठाया गया यह प्रश्न समाधान पा सकेगा। हिंसा के बीज कोई बाहर नहीं हैं। हिंसा का जन्म आज नहीं हआ है। हिंसा का जन्म पहले से ही हो चुका है। इस व्यवहार की अहिंसा ने हिंसा के प्रश्न पर आवरण डाल दिया है। जब भाई-भाई बड़े स्नेह के साथ रहते हैं, पति-पत्नी बड़े स्नेह के साथ रहते हैं, एक बड़े नगर में हजारों-हजारों, लाखों-लाखों लोग बड़े स्नेह और प्यार के साथ रहते हैं, तो हम एक भ्रान्ति में चले जाते हैं कि कितनी अहिंसा है ! कोई हिंसा ही नहीं है । यह भ्रान्ति जब टूटती है तब प्रश्न पैदा होता है कि हिंसा का जन्म कैसे हुआ ?
हम भ्रान्ति में जी रहे हैं। यह अहिंसा नहीं है। न भाई-भाई में अहिंसा है और न पिता-पुत्र में अहिंसा है, न पड़ोसी-पड़ोसी में अहिंसा है और न बहत्तर लगने वाले समाज में अहिंसा है। मात्र एक उपयोगिता का धागा है। वह धागा है, तब तक ठीक चलता है। जब धागा टूटता है तो हिंसा भड़क उठती है । राजनीति में मित्रता का अर्थ है—स्वार्थों का सामंजस्य । जब तक स्वार्थ नहीं टकराते, तब तक मित्रता । स्वार्थ टकराया, फिर युद्ध तैयार । मित्रता होती नहीं है। वास्तविक मित्रता नहीं होती राजनीति में और समाज में। इसलिए अहिंसा के प्रश्न पर बहुत गंभीरता से विचार करना आवश्यक
अहिंसा का मूल आधार
मैं मानता हूं, ध्यान का अभ्यास इस परमार्थ की दिशा में एक प्रस्थान है । ध्यान का अर्थ है अपने आपको देखना । अपने आपको देखने का
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