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सामाजिक जीवन की समस्या और सह-अस्तित्व
इन तीन सूत्रों का प्रयोग आवश्यक है । अहिंसा और सह-अस्तित्व
हमने अहिंसा को एक रूप में जाना है । अहिंसा यानी किसी को न मारना, किसी को न सताना । जब तक सह-अस्तित्व की भावना का विकास नहीं होता तब तक अहिंसा का अर्थ पूरा समझ में नहीं आता । एक साथ रहना है और एक साथ जीना है तो आश्वास, विश्वास और अभय के वाता - वरण का निर्माण करना होगा । हमारी अहिंसा, आपकी अहिंसा प्राणी मात्र के साथ जुड़े यह आवश्यक है । किसी को नहीं मारना बहुत अच्छी बात है । इस अवधारणा में भी एक अंतर आया है कि और किसी को नहीं मारना, किन्तु मनुष्य को मारा जा सकता है, सताया जा सकता है । उसमें भी निकट का व्यक्ति अधिक उपेक्षित बन गया है, यानी अपना पड़ोसी, अपना परिवार, अपना समाज, अपना राष्ट्र - सबकी उपेक्षा हो सकती है । मनुष्य की उपेक्षा और प्राणीमात्र की अपेक्षा — अहिंसा का यह एक रूप बन गया है । प्राणी मात्र को नहीं सताना — इस धारणा को गलत नहीं कहा जा सकता । यह बहुत आवश्यक है, किन्तु प्रारंभ कहां से हो, अहिंसा का प्रारंभ कहां से करें, यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है ।
अहिंसा : वर्तमान मानस
अहिंसा के दो रूप हैं— स्वाभिमुखी अहिंसा और समाजाभिमुखी अहिंसा । क्रोध, अहंकार, भय, घृणा और द्वेष – इन सबको कम करना स्वाभिअहिंसा है। समाज के किसी भी व्यक्ति का शोषण नहीं करना, लूटखसोट नहीं करना, पीड़ा नहीं पहुंचाना, आघात नहीं करना, हीन भावना पैदा नहीं करना आदि-आदि समाजाभिमुखी अहिंसा है ।
आज समाजाभिमुखी अहिंसा की ओर ध्यान बहुत कम है । स्वाभिमुखी अहिंसा की ओर भी ध्यान केन्द्रित नहीं है । केवल छोटे प्राणियों की ओर अभिमुख अहिंसा ही ज्यादा चल रही है । चींटी को नहीं सताना, नहीं मारना उसका एक निदर्शन बन सकता है । एक चींटी मर जाए तो मन में थोड़ी ग्लानि होती है । यदि मनुष्य का शोषण हो जाए, उत्पीड़न हो जाए तो शायद उतनी चिंता नहीं होती । किसी का गला काटने पर भी संभवतः इतना प्रकम्पन नहीं होता जितना एक चींटी को मार देने पर हो जाता है । जातिवाद : सह-अस्तित्व में बाधक
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इस स्थिति में सह-अस्तित्व के सिद्धांत को विकसित करना बहुत जरूरी है । "सब मनुष्य समान हैं" यह अहिंसा का एक आधारभूत सिद्धांत है । मनुष्य जाति एक है— इस स्वर की उपेक्षा से मानव समाज का विकास अवरुद्ध हुआ है | जातिवाद और संप्रदायवाद ने सह-अस्तित्व को बहुत हानि
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