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१५. इच्छा और नैतिकता
नैतिकता के लिए इच्छा को जानना बहुत जरूरी है। इच्छा को जाने बिना और उस पर अनुशासन किए बिना कोई भी व्यक्ति नैतिक नहीं बन सकता । इच्छा का संसार बहुत बड़ा है। भगवान् महावीर ने कहा हैइच्छा हु आगाससमा अणंतिया-इच्छा आकाश की भांति अनन्त है। इच्छा का अनुमापन आकाश से किया गया है। जितना बड़ा आकाश उतना बड़ा. इच्छा का जगत् । इच्छा का जगत् अनंत है
मैकंजी ने एक किताब लिखी है-यूनिवर्स ऑफ डिजायर-इच्छा का जगत् । इच्छा का एक जगत् है और वह अनंत है। कभी उसका अंत नहीं आता । उसका आर-पार नहीं पाया जा सकता। हर क्षण, हर व्यक्ति में अलगअलग इच्छाएं पैदा होती रहती हैं।
इच्छाएं दो प्रकार की होती हैं-चेतन इच्छा और अचेतन इच्छा । चेतन इच्छा प्रगट होती है तो हमें उसका पता लग जाता है। इसका जगत् कुछ छोटा होता है। अचेतन इच्छा का संसार बड़ा है, अनंत है। हमारे भीतर इतनी इच्छाएं हैं कि उनकी न सीमा है और न नाप है। हम जो कुछ करते हैं, उसके पीछे एक इच्छा होती है । प्रत्येक व्यवहार इच्छा-प्रेरित
मनोविज्ञान के जन्मदाता फ्रायड ने लिखा—मनुष्य के प्रत्येक व्यवहार के पीछे एक इच्छा होती है । आदमी एक अंगुली हिलाता है तो उसके पीछे एक इच्छा होती है। रोटी खाता है तो उसके साथ भी इच्छा जुड़ी हुई होती है। प्रत्येक व्यवहार के पीछे इच्छा होती है। इस सत्य को एक मनोवैज्ञानिक ने प्रगट किया और यह वास्तविक भी है । हमारा सारा व्यवहार अनुबंधित व्यवहार होता है। जहां कोई इच्छा नहीं होती और कोई व्यवहार घटित हो जाता है, हम उसे आकस्मिक मानते हैं। अनेक व्यक्ति कहते हैं - मेरी इच्छा तो नहीं थी, पर पता नहीं मैं वहां क्यों चला गया। इच्छा तो नहीं थी पर हाथ हिल गया । इच्छा के बिना होने वाली घटना को आकस्मिक माना जाता हैं, स्वाभाविक नहीं। स्वाभाविक घटना वही है जिसके पीछे हमारी इच्छा होती है, इच्छा का कोई न कोई अनुबंध होता है।
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