Book Title: Ahimsa ke Achut Pahlu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 195
________________ ध्यान और अलौकिक चेतना १८१ आवश्यक है गुणात्मक परिवर्तन त्याग स्वाभाविक नहीं है, भोग स्वाभाविक है । पदार्थ का भोग स्वाभाविक लगता है पर पदार्थ का त्याग स्वाभाविक नहीं लगता। पदार्थ का त्याग अलौकिक चेतना का परिणाम है। ध्यान के द्वारा हम विराग और त्याग की चेतना को विकसित करने का प्रयास करते हैं। यदि ध्यान के द्वारा विराग और त्याग की चेतना नहीं जागती है तो मानना चाहिए कि सही अर्थ में ध्यान नहीं हो रहा है। जो निरंतर ध्यान करते हैं या ध्यान का अभ्यास करते हैं उनमें त्याग और विराग का विकास होना चाहिए। यह कभी संभव नहीं है कि कोई भी व्यक्ति छलांग मारकर वीतराग बन जाए । पर जो निरंतर ध्यान करते हैं, उनमें यदि यह गुणात्मक परिवर्तन नहीं आता है तो मानना चाहिए कि ध्यान के स्थान पर कुछ और ही हो रहा है। उनमें धर्म ध्यान और शुक्लध्यान न होकर आत ध्यान और रौद्र ध्यान हो रहा है। अन्यथा भिन्न प्रकार की चेतना, प्रतिक्रियामुक्त चेतना जागनी चाहिए। मानवीय मूल्य प्राचीन काल की बात है। आर्य जीवक आयुर्वेद के प्राणाचार्य थे। वे आयुर्वेद के पुरस्कर्ता और प्रकाण्ड विद्धान थे। एक बार घूमने निकले । एक पुष्प-वाटिका में उनकी आंखें एक फल पर अटक गईं। वे उसे एकटक निहारते रहे। फूल अजीब सा था। उन्होंने सोचा-इस फूल के गुण-धर्म जानने चाहिए। फूल को पाना चाहते थे, पर पाएं कैसे ? पुष्पवाटिका का स्वामी वहां नहीं था। किसकी आज्ञा से ले फूल ? शिष्य साथ में था। उसने कहा-आप आज्ञा दें। मैं फूल को तोड़कर ला दूं । आचार्य जीवक बोले-नहीं, बिना आज्ञा लेना चोरी है। शिष्य बोला–आर्य ! आपको तो राजाज्ञा प्राप्त है कि आप कहीं से फूल या वनस्पति तोड़ सकते हैं। आचार्य जीवक बोले-वत्स ! यह ठीक बात है कि यह फूल पुष्पवाटिका के स्वामी के किसी काम का नहीं है। राजाज्ञा की बात भी उचित है, पर वत्स ! चोरी से फूल तुड़वा लेता हूं तो इसका अर्थ होगा, मानवीय मूल्यों का हनन । अलौकिक चेतना के परिणाम जब अलौकिक चेतना जागती है तब सारे मानवीय मूल्य बदल जाते हैं । लौकिक चेतना में राग का महत्वपूर्ण स्थान है। राग का तात्पर्य है पदार्थ में सुख की खोज। अलौकिक चेतना का जागरण होते ही राग का स्थान विराग ले लेता है। विराग का तात्पर्य है-अपने भीतर सुख की खोज। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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