Book Title: Ahimsa ke Achut Pahlu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 196
________________ १८२ अहिंसा के अछूते पहलु लौकिक चेतना में भोग सम्मत है। भोग का अर्थ है-~-इन्द्रिय के स्तर पर जीना । अलौकिक चेतना को जीने वाला इन्द्रिय संवेदनों से ऊपर उठकर जीता है । उसके लिए त्याग एक जीवन-मूल्य बन जाता है। ___ लौकिक चेतना में क्रोध की आवश्यकता को नहीं नकारा गया । प्रशासन के लिए अथवा कर्मचारियों से काम लेने के लिए क्रोध एक आवश्यक तत्त्व है । अलौकिक चेतना में प्रशासन की अवधारणा बदल जाती है। क्रोध के स्थान पर क्षमा आसीन हो जाती है। लौकिक चेतना में प्रतिक्रिया भी सम्मत है। प्रतिक्रिया न करने वाला दब्बू या कायर माना जाता है। अलौकिक चेतना में जानने और देखने की क्षमता बढ़ जाती है। जो जानता-देखता है, वह घटना को भोगता नहीं। उसे न भोगना ही सहिष्णुता है। अलौकिक चेतना : संतुलन का सूत्र __ लौकिक चेतना में प्रवृत्ति की बहुलता है। उससे एक असंतुलन पैदा हो गया है । प्रवृत्ति और तनाव-इन दोनों में निकट का संबंध है । अलौकिक चेतना जागती है, प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन बन जाता है। प्रवृत्ति के क्षण में अनुकंपी (सिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम) नाड़ी संस्थान सक्रिय हो जाता है। जप के द्वारा परानुकंपी (पेरासिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम) नाड़ी संस्थान को सक्रिय बनाकर दोनों में संतुलन स्थापित किया जा सकता है लौकिक चेतना में राग और द्वेष के लिए अवकाश है इसलिए उसे पक्षपात से मुक्त नहीं देखा जा सकता । अलौकिक चेतना में समता का विकास होता है। तटस्थता उसकी सहज निष्पत्ति है। लौकिक चेतना में मनुष्य बाहर की ओर फैलता जाता है। बाहर की ओर फैलने का अर्थ है--बंधते जाना । जो मनुष्य जितना बाहर की ओर जाता है, उतना ही अपने को समस्या से घिरा हुआ पाता है । अलौकिक चेतना का विकास अपने आपको देखने का विकास है। यह उपाय है समस्या से मुक्त होने का। दोनों का योग जरूरी है लौकिक चेतना के बिना जीवन यात्रा नहीं चलती, इसलिए उसे छोड़ देने की बात नहीं कही जा सकती। अलौकिक चेतना के बिना शान्तिपूर्ण और आनन्दपूर्ण जीवन नहीं जीया जा सकता इसलिए उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। जरूरी है-लौकिक चेतना के साथ अलौकिक चेतना का योग । उसके लिए जरूरी है अपनी प्रेक्षा, अपने आप को देखने का अभ्यास । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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