Book Title: Ahimsa ke Achut Pahlu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 201
________________ नये जीवन का निर्माण १८७ भोजन का कौनसा नियम है । भोजन किया, अंत में आईस्क्रीम खाई, इसका अर्थ है-किया-कराया चौपट कर दिया। यह अग्नि को मंद बनाने का प्रयत्न है और जाने-अनजाने में बीमारी को निमंत्रण देने का प्रयत्न है। अभीअभी मैंने पढ़ा था कि फ्रीज में रखी हुई चीजें खाना स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक हैं। उसमें रखे हुए भोजन की प्रकृति बदल जाती है। उसका मूल तत्त्व नष्ट हो जाता है। वर्तमान मानस आजकल मकान, आफिस और कार भी एयर कंडीशन चाहिए। 'वातानुकलित'-यह बड़प्पन का एक चिन्ह बन गया, कसौटी बन गई । जिसका मकान एयर कंडीशन है, कार भी एयर कंडीशन है, वह बड़ा आदमी है । यह है अर्थ का प्रभाव । जब मन पर अर्थ का प्रभाव हो जाता है, आदमी अच्छे बुरे का भेद भूल जाता है, लाभ और हानि को भुला देता है । अत्यधिक ठंडा या गरम भोजन करने से प्रकृति को सहन करने की हमारी क्षमता नष्ट हो जाती है, शरीर निकम्मा बन जाता है। सर्दी को सहना, गर्मी को सहना-जब सभी तरह की हमारी शक्ति होती है तो हमारी रोग-प्रतिरोधक शक्ति, रेसिस्टेन्ट पावर भी मजबूत रहता है। हम कुछ भी सहन नहीं करते हैं तो हमारी रोग-निरोधक क्षमत भी कमजोर हो जाती है, प्रतिरोधक प्रणाली भी कमजोर बन जाती है। जीवन का नियम एक व्यक्ति बगीचे में गया। हवा तेज चल रही थी। छोटे-छोटे पौधे हिल रहे थे। उसने माली से पूछा-ये गिर जायेंगे, इन्हें रस्सी से बांध क्यों नहीं देते ? माली बोला-बाबूजी ! इन्हें बांधना अच्छा नहीं है। बांधने से इनकी जड़ें कमजोर रह जाएंगी। फिर ये बड़े होकर जल्दी गिर जायेंगे। जीवन का एक नियम है-कठिनाइयों को झेलना, प्रकृति की सारी बातों को झेलना, सर्दी, गर्मी, ताप-इनको झेलते हुए एकदम मजबूत बन जाना। आज का आदमी सोचता है-कुछ सहना ही नहीं है। कष्ट नहीं सहना है । एक छोटे बच्चे को हम कपड़ों से इतना बांध देते हैं कि शरीर को जैसे कोई आंच ही न आने पाए। धीरे-धीरे उसकी सहन-शक्ति चुक जाती है और फिर वह जीवन में कष्टों से अधीर हो जाता है । आज अर्थ का प्रभाव इतना मन पर जम गया कि आदमी सोचता है, जितना आराम जीवन में भोगा जा सके, भोग लेना चाहिए। पता नहीं आगे क्या होगा, आगे मर कर कहां जाएंगे । जितना भोगना है, इसी जीवन में भोग लें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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