Book Title: Ahimsa ke Achut Pahlu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 172
________________ अहिंसा के अछूते पहलु अनैतिकता मिटनी चाहिए। इतना भ्रष्टाचार और इतनी अनैतिकता ! जहां कहीं भी जाओ, बड़ी समस्या और बड़ी कठिनाई का अनुभव होता है और उसको मिटाने के लिए बहुत सारे प्रयत्न भी हो रहे हैं। किंतु समस्या वहां की वहां उलझी हुई है और कारण भी बहुत साफ है। हमारी प्रकृति है-हमारे जो सामने आता है हम उसी पर प्रहार कर देते हैं। हम इस बात पर बल देते हैं कि भाई नैतिक रहो, शुद्ध रहो । हम इस बात पर ध्यान दें कि व्यवहार को कौन अशुद्ध बना रहा है। यह प्रेरणा कहां से आ रही है ? जब तक उस प्रेरणा पर विचार नही करेंगे तब तक समाधान नहीं मिलेगा। वह प्रेरणा आ रही है सुख की आकांक्षा में से । सुख की आकांक्षा और स्वार्य अनैतिकता की मूल प्रेरणाएं हैं । संयम के बिना नैतिकता नहीं आदमी के मन में एक प्रेरणा जाग गई कि मुझे प्रसिद्ध होना है। भीतर में एक आकांक्षा है प्रसिद्धि की । वह उपाय करेगा कि मैं प्रसिद्ध बनूं । उपाय किया और प्रसिद्धि नहीं हुई तो फिर भीतर से प्रेरणा आएगी कि जैसे-तैसे प्रसिद्ध बनो। हम देखें-हमारे भीतर में क्या-क्या प्रेरणाएं छिपी हुई हैं। असंयम की प्रेरणा, सुख की प्रेरणा, प्रसिद्धि की प्रेरणा-ये सारी छिपी हुई प्रेरणाएं हैं। ये जब तक कम नहीं होतीं, इनका संयम नहीं होता तब तक साधनों को कम करने की बात और साधनों को शुद्ध ढंग से पाने की बात, व्यवहार शुद्धि या नैतिकता की बात बहुत कमजोर बन जाती है। इसलिए हमें सबसे ज्यादा ध्यान देना है मूल समस्या पर और मूल स्रोत पर, जहां से ये सारी बीमारियां फूट कर आ रही है। वह स्रोत है सुख की आकांक्षा । समाधान की भाषा नैतिकता के क्षेत्र में अनेक पश्चिमी दार्शनिकों ने सुखवादी नैतिकता का भी विचार किया है। किंतु भारतीय साधना पद्धति के सदभं में जिस बात पर अधिक बल दिया गया, वे हमारे बहुत परिचित शब्द हैं-संयम, यम और नियम । यदि इन तीनों पर हम ध्यान दें तो नैतिकता की बात कुछ सुलझ सकती है। जब तक इन पर हमारा गहरा चिंतन नहीं होगा, असंयम भी चलता रहेगा, अनैतिकता भी चलती रहेगी और नैतिकता के लिए घोषणाएं भी होती रहेंगी, पछतावा भी होता रहेगा और भारतीय समाज कितना रसातल तक चला गया है, इसके अनुताप का स्वर भी होता रहेगा। किंतु कोई परिणाम आ सकेगा ऐसा मुझे नहीं लगता । इसीलिए हमें मूल बीमारी को पकड़ना है और मूल स्रोत तक पहुंचना है। वहां पहुंचकर ही हम समाधान की भाषा में बोल सकेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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