Book Title: Ahimsa ke Achut Pahlu
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 192
________________ १७८ अहिंसा के अछूते पहलु विभिन्न व्यवहारों के भाव हमारे भीतर बने हुए हैं। एक त्रिपदी हैव्यवहार, व्यवहार की पृष्ठभूमि में भाव और भाव के पीछे लौकिक चेतना। यह एक चक्र है। अमुक प्रकार की वस्तु सामने आए तो अमुक भाव और अमुक भाव जागेगा तो अमुक प्रकार का प्रतिक्रियात्मक व्यवहार होगा। एक व्यक्ति शांत बैठा था। पांच-चार मित्र आए। एक व्यक्ति आगे बढ़ा और तेज स्वर में बोला, कैसे बेवकूफ हो ? हाथ पर हाथ रख कर आलसी होकर बैठे हो, क्या यह समय है शांत बैठने का ? श्रम करो। मुफ्त का खाते ही । इतना सुनते ही उसकी प्रसन्नता काफूर हो गई । वह गरमा गया । उसने कहने वाले का गला पकड़ लिया। वह व्यक्ति बोला-भाई साहब! आप गलत समझ गए । मेरा कहने का अभिप्राय दूसरा था। क्या मैं कभी आपको ऐसा कह सकता हूं?" वह शांत हो गया। यह सारा प्रतिक्रियात्मक व्यवहार है। लौकिक चेतना का परिणाम . तीन-चार मित्र घूमने निकले । एक मित्र भोला था। उसको छकाने की दृष्टि से एक मित्र बोला-अरे यार ! लगता है बगीचे के पास खड़ी गाय तुमको बुला रही है । भोले मित्र ने अपने मित्र का आशय भांप लिया । उसके मन में प्रतिक्रिया हुई। वह गाय के पास गया और अपना एक कान गाय के मुंह के पास कर, दो चार मिनट वहीं रह, वापस आ गया। मित्र ने पूछा-तुम तो गाय से बात कर रहे थे। बताओ, गाय ने तुम्हें क्या कहा? वह बोला-गाय बड़ी समझदार है। उसने बड़ी सीख दी है। उसने कहा-अरे भाई ! तुम तो भोले आदमी दीख रहे हो, उन गधों के साथ क्यों घूम रहे प्रतिक्रिया मुक्त चेतना है अलौकिक चेतना यह सारा प्रतिक्रियात्मक व्यवहार है । सारा जीवन इसी व्यवहार से भरा पड़ा है। यह लौकिक चेतना का परिणाम है। इसका तात्पर्य हैसामने जो भी आए, उसी में बह जाना, उसे स्वीकार कर लेना। अलौकिक चेतना का अर्थ है- प्रतिक्रियामुक्त चेतना। यह लोकोत्तर चेतना है । इसका जागरण होने पर प्रतिक्रिया नहीं होती। निदर्शन अलौकिक चेतना के चंडकौशिक सर्प भगवान महावीर को डस रहा है। भगवान् शांत और स्थिर खड़े हैं। प्रश्न होता है कि क्या यह संभव है कि एक व्यक्ति कष्ट दे रहा है और दूसरा शांत खड़ा रहे ? महावीर ने इसे सम्भव कर दिखाया। __ महात्मा बुद्ध का शिष्य देवदत्त बुद्ध को कष्ट दे रहा है । वह पत्थर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208