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आर्थिक जीवन और सापेक्षता
परिग्रह का वर्णन किया गया । पूछा गया, परिग्रह का जो एक पेड़ है, उसका फल क्या है ? उत्तर दिया गया- काम-भोग उसके पुष्प - फल हैं । यदि भोग की बात न हो, भोग की आसक्ति न हो तो आर्थिक जीवन बदल जाए । भोगासक्ति के कारण आर्थिक जीवन और अधिक जटिल बन जाता है । आर्थिक जीवन का एक पहलू : शोषण
आर्थिक जीवन का छठा पहलू है - शोषण । मनुष्य अधिक पाने का प्रयत्न करता है, इसलिए वह दूसरे का शोषण करता है। अधिक पाना है तो दूसरे का शोषण करना ही होगा। कहा जाता है - व्यक्ति न्यायोचित तरीके से कमाए, अपनी जीविका चलाए, दूसरे का शोषण न करे । जैन आगमों में कहा गया है - एक त्यागी आदमी धर्म के द्वारा अपनी जीविका का संचालन करता है । नीतिशास्त्र का शब्द है— 'न्याय' और धर्मशास्त्र का शब्द है - 'धम्मेण 'वित्ति कप्पेमाणा' । जहां न्यायोचित तरीके से या धर्म की दृष्टि से उपार्जन की बात छूट जाती है, वहां शोषण पनपता है ।
कर्मवाद : एक अवधारणा
हिन्दुस्तान में एक आम धारणा है कि गरीब आदमी अपने कर्म से गरीब बनता है और अमीर आदमी अपने कर्म से अमीर बनता है । जिस अच्छा कर्म किया है, वह धनवान बनता है, अमीर बनता है । जिसने बुरा कर्म किया है, वह धनहीन बनता है, गरीब बनता है। इस धारणा ने आर्थिक समस्या को अधिक जटिल बनाया है। इससे आर्थिक समस्या उलझी है । एक आदमी कमाता चला जाता है । वह सोचता है— मैंने अच्छे कर्म किए हैं, अच्छा कार्य किया है इसलिए अच्छा पैसा मिल रहा है । इस भावना के आधार पर वह निरपेक्ष हो जाता है, समाज की अपेक्षा नहीं रखता ।
गरीबों में भी यह धारणा व्यापक बनी हुई है । बहुत सारे गरीब इसी धारणा के आधार पर अपना शांत जीवन चला रहे हैं । वे कहते हैं—हमने पूर्व जन्म में ऐसे ही कर्म किए हैं, अतः उन्हें भुगत रहे हैं। बहुत बार प्रश्न होता है कि हिन्दुस्तान में आर्थिक क्रांति क्यों नहीं हुई ? इतनी गरीबी होने के बाद भी साम्यवाद क्यों नहीं फैला ? उसका एक अवरोधक कारण है । यहां के आम आदमी के मन में एक धारणा जमी हुई है कि गरीबी मेरे कर्म का फल है, भाग्य का फल है । यदि यह धारणा नहीं होती तो शायद आज से पहले ही रक्तक्रांति का प्रश्न प्रस्तुत हो जाता । इस धारणा ने एक रुकावट पैदा कर रखी है । शोषण के साथ भी यह भाग्यवादी या कर्मवादी अवधारणा जुड़ी हुई है ।
अपराध का कारण : आर्थिक असंतुलन
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आर्थिक जीवन का सातवां पहलू है— अपराध । मनोविज्ञान में अपराध
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